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________________ -दोहा १२१] परमात्मप्रकाशः १११ क्रियाध्याहारः, तसु तस्य णवि नैवास्ति । कोऽसौ । बंभु ब्रह्मशब्दवाच्यो निजपरमात्मा वियारि एवं विचारय वं हे प्रभाकरभट्ट । अत्रार्थे दृष्टान्तमाह । एक्कहिं केम एकस्मिन् कथं समंति सम्यग्मिमाते सम्यगवकाशं कयं लभेते वढ बत बे खंडा द्वौ खड्गौ असी । काधिकरणभूते । पडियारि प्रतिकारे (?) कोशशब्दवाच्ये इति । तथाहि । वीतरागनिर्विकल्पपरमसमाधिसंजातानाकुलवलक्षणपरमानन्दसुखामृतप्रतिबन्धकैराकुलखोत्पादकैः स्त्रीरूपावलोकनचिन्तादिसमुत्पन्नहावभावविभ्रमविलासविकल्पजालैमूच्छिते वासिते रञ्जिते परिणते चित्ते खेकस्मिन् प्रतिहारे (?) खड्गद्वयवत्परमब्रह्मशब्दवाच्यनिजशुद्धात्मा कथमवकाशं लभते न कथमपीति भावार्थः । हावभावविभ्रमविलासलक्षणं कथ्यते । “ हावो मुखविकारः स्याद्भावश्चितोत्थ उच्यते । विलासो नेत्रजो ज्ञेयो विभ्रमो भ्रयुगान्तयोः॥" ॥ १२१ ॥ अथ रागादिरहिते निजमनसि परमात्मा निवसतीति दर्शयति णिय-मणि णिम्मलि णाणियहँ णिवसइ देउ अणाइ । हंसा सरवरि लीणु जिम महु एहउ पडिहाइ ॥ १२२ ॥ निजमनसि निर्मले ज्ञानिनां निवसति देवः अनादिः । हंसः सरोवरे लीनः यथा मम ईदृशः प्रतिभाति ॥ १२२ ॥ णियमणि इत्यादि । णियमणि निजमनसि । किविशिष्टे । णिम्मलि निर्मले रागादिसकती हैं ? कभी नहीं समा सकतीं ॥ भावार्थ-वीतरागनिर्विकल्पपरमसमाधिसे उत्पन्न हुआ अनाकुलतारूप परम आनंद अतींद्रिय-सुखरूप अमृत है, उसके रोकनेवाले तथा आकुलताको उत्पन्न करनेवाले जो स्त्रीरूपके देखनेकी अभिलाषादिसे उत्पन्न हुए हाव (मुख-विकार) भाव अर्थात् चित्तका विकार, विभ्रम अर्थात् मुँहका टेढा करना, विलास अर्थात् नेत्रोंके कटाक्ष इन स्वरूप विकल्पजालोंकर मूर्छित रंजित परिणत चित्तमें ब्रह्मका (निज शुद्धात्माका) रहना कैसे हो सकता है ? जैसे कि एक म्यानमें दो तलवारें कैसे आ सकती हैं ? नहीं आ सकतीं । उसी तरह एक चित्तमें ब्रह्म-विद्या और विषय-विनोद ये दोनों नहीं समा सकते । जहाँ ब्रह्म विचार है, वहाँ विषयविकार नहीं है; जहाँ विषय-विकार हैं वहाँ ब्रह्म-विचार नहीं है । इन दोनोंमें आपसमें विरोध है । हाव भाव विभ्रम विलास इन चारोंका लक्षण दूसरी जगह भी कहा है-“हावो मुखविकारः" इत्यादि । उसका अर्थ ऊपर कर चुके हैं, इससे दूसरी बार नहीं किया ॥१२१।। ___आगे रागादि रहित निज मनमें परमात्मा निवास करता हैं, ऐसा दिखाते हैं-[ज्ञानिनां] ज्ञानियोंके [निर्मले] रागादि मल रहित [निजमनसि] निज मनमें [अनादिः देवः] अनादि देव आराधने योग्य शुद्धात्मा [निवसति] निवास कर रहा है, [यथा] जैसे [सरोवरे] मानससरोवरमें [लीनः हंसः] लीन हुआ हंस बसता है । सो हे प्रभाकरभट्ट, [मम] मुझे [एवं] ऐसा [प्रतिभाति] मालूम पडता है । ऐसा वचन श्रीयोगींद्रदेवने प्रभाकरभट्टसे कहा ।। भावार्थ- पहले दोहेमें जो कहा था कि चित्तकी आकुलताके उपजानेवाले स्त्रीरूपका देखना सेवना चिंतादिकोंसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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