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________________ योगीन्दुदेवविरचितः [ अ० १, दोहा १२० ११० करोतीति ॥ ११९ ॥ अथ यथा मलिने दर्पणे रूपं न दृश्यते तथा रागादिमलिनचित्ते शुद्धात्मस्वरूपं न दृश्यत इति निरूपयति राऍ रंगिए हिease देउ ण दीसह संतु । पण मइलए बिंबु जिम एहउ जाणि णिभंतु ॥ १२० ॥ रागेन रञ्जिते हृदये देवः न दृश्यते शान्तः । दर्पणे लिने बिम्बं यथा एतत् जानीहि निर्भ्रान्तम् ॥ १२० ॥ राएं इत्यादि । राएं रंगिए हियवडए रागेन रञ्जिते हृदये देउ ण दीसइ देवो न दृश्यते । किंविशिष्टः संतु शान्तो रागादिरहितः । दृष्टान्तमाह । दप्पणि महलए दर्पणे मलिने बिंबु जिम बिम्बं यथा एहउ एतत् जानीहि हे प्रभाकरभट्ट णिभंतु निर्भ्रान्तं यथा भवतीति । अयमत्राभिप्रायः । यथा मेघपटलप्रच्छादितो विद्यमानोऽपि सहस्रकरो न दृश्यते तथा केवलज्ञानकिरणैर्लोकालोकप्रकाशकोऽपि कामक्रोधादिविकल्पमेघमच्छादितः सन् देहमध्ये शक्तिरूपेण विद्यमानोऽपि निजशुद्धात्मा दिनकरो न दृश्यते इति ॥ १२० ॥ अथानन्तरं विषयासक्तानां परमात्मा न दृश्यत इति दर्शयति 1 जसु हरिणच्छी हियवडए तसु गवि बंभु वियारि । एकहि केम समंति वढ बे खंडा पडियारि ॥ १२१ ॥ यस्य हरिणाक्षी हृदये तस्य नैव ब्रह्म विचारय । एकस्मिन् कथं समायातौ वत्स द्वौ खड्गौ प्रत्याकारे (१) ॥ १२१ ॥ जसु इत्यादि । जसु यस्य पुरुषस्य हरिणच्छि हरिणाक्षी स्त्री हियवडए हृदये वसतीति [शांतः देवः ] रागादि रहित आत्मा देव [ न दृश्यते ] नहीं दीखता, [ यथा ] जैसे कि [मलिने दर्पणे ] मैले दर्पण [बिंबं ] मुख नहीं भासता । [ एतत् ] यह बात हे प्रभाकरभट्ट, तू [निर्भ्रातं ] संदेह रहित [जानीहि ] जान ॥ भावार्थ - ऐसा श्रीयोगींद्राचार्यने उपदेश दिया है कि जैसे सहस्र किरणोंसे शोभित सूर्य आकाशमें प्रत्यक्ष दीखता है, लेकिन मेघसमूहकर ढँका हुआ नहीं दीखता, उसी तरह केवलज्ञानादि अनन्त गुणरूप किरणोंकर लोक- अलोकका प्रकाशनेवाला भी इस देह (घट) के बीचमें शक्तिरूपसे विद्यमान निज शुद्धात्मरूप (परमज्योति चिद्रूप) सूर्य काम क्रोधादि राग द्वेष भावस्वरूप विकल्पजालरूप मेघसे ढँका हुआ नहीं दीखता ॥१२०॥ आगे जो विषयोंमें लीन हैं, उनको परमात्माका दर्शन नहीं होता, ऐसा दिखलाते हैं - [ यस्य हृदये] जिस पुरुष चित्तमें [ हरिणाक्षी ] मृगके समान नेत्रवाली स्त्री [वसति] बस रही है [तस्य] उसके [ ब्रह्म] अपना शुद्धात्मा [ नैव ] नहीं है, अर्थात् उसके शुद्धात्माका विचार नहीं होता, ऐसा है प्रभाकरभट्ट, तू अपने मनमें [ विचारय ] विचार कर । बडे [ बत] खेदकी बात है कि [ एकस्मिन् ] एक [ प्रतिकारे ] म्यानमें [ द्वौ खड्नौ ] दो तलवारें [ कथं समायातौ ] कैसे आ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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