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________________ परमात्मप्रकाशः -दोहा ११९] जं सुहु होइ अणंतु यत्सुखं भवत्यनन्तं तं सुहु तत्पूर्वोक्तमुखं लहइ लभते । कोऽसौ । विराउ जिउ वीतरागभावनापरिणतो जीवः किं कुर्वन् सन् । जाणतउ जानमनुभवन् सन् । कम् । सिउ शिवशब्दवाच्यं निजशुद्धात्मस्वभावम् । कथंभूतम् । संतु शान्तं रागादिविभावरहितमिति । अयमत्र भावार्थः। दीक्षाकाले शिवशब्दवाच्यस्वशुद्धात्मानुभवने यत्सुखं भवति जिनवराणां वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरतो जीवस्तत्सुखं लभत इति ।। ११८ ॥ अथ कामक्रोधादिपरिहारेण शिवशब्दवाच्यः परमात्मा दृश्यत इत्यभिप्रायं मनसि संपधार्य खत्रमिदं कथयन्ति जोइय णिय-मणि णिम्मलए पर दीसह सिउ संतु। अंबरि णिम्मलि घण-रहिए भाणु जि जेम फुरंतु ॥ ११९ ॥ योगिन् निजमनसि निर्मले परं दृश्यते शिवः शान्तः । अम्बरे निर्मले घनरहिते भानुः इव यथा स्फुरन् ॥ ११९॥ जोइय इत्यादि । जोइय हे योगिन् णियमणि निजमनसि । कथंभूते। णिम्मलए निर्मले परं नियमेन दीसइ दृश्यते । कोऽसौ । कर्मतापनः सिउ शिवशब्दवाच्यो निजपरमात्मा । कयंभूतः। संतु शान्तः रागादिरहितः। दृष्टान्तमाह । अम्बरे आकाशे । कथंभूते । णिम्मलि निर्मले । पुनरपि कयंभूते । घणरहिए घनरहिते । क इव । भाणु जि भानुरिव यथा । किं कुर्वन् । फुरंतु स्फुरन् प्रकाशमान इति । अयमत्र तात्पर्यार्थः । यथा घनघटाटोपविघटने सति निर्मलाकाशे दिनकरः प्रकाशते तथा शुद्धात्मानुभूतिमतिपक्षभूतानां कामक्रोधादिविकल्परूपघनानां विनाशे सति निर्मलचित्ताकाशे केवलज्ञानाद्यनन्तगुणकरकलितः निजशुद्धात्मादित्यः प्रकाश तीर्थंकरदेव निज शुद्ध आत्माको अनुभवते हुए जो निर्विकल्प सुख पाते हैं, वही सुख रागादि रहित निर्विकल्प-समाधिमें लीन विरक्त मुनि पाते हैं ॥११८॥ आगे काम क्रोधादिकके त्यागनेसे शिव शब्दसे कहा गया परमात्मा दीख जाता है, ऐसा अभिप्राय मनमें रखकर यह गाथा-सूत्र कहते हैं-योगिन] हे योगी, [निर्मले निजमनसि] निर्मल अपने मनमें [शिवः शांतः] निज परमात्मा रागादि रहित [परं] नियमसे [दृश्यते] दीखता है, [यथा] जैसे [घनरहिते निर्मले ] बादल रहित निर्मल [अंबरे] आकाशमें [ भानुः इव] सूर्यके समान [स्फुरन्] भासमान (प्रकाशमान) है ॥ भावार्थ-जैसे मेघमालाके आडंबरसे सूर्य नहीं भासता-दीखता और मेघके आडंबरके दूर होनेपर निर्मल आकाशमें सूर्य स्पष्ट दीखता है, उसी तरह शुद्ध आत्माकी अनुभूतिके शत्रु जो काम-क्रोधादि विकल्परूप मेघ हैं, उनके नाश होनेपर निर्मल मनरूपी आकाशमें केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप किरणोंकर सहित निज शुद्धात्मारूपी सूर्य प्रकाश करता है ॥११९॥ आगे जैसे मैले दर्पणमें रूप नहीं दीखता, उसी तरह रागादिकर मलिन चित्तमें शुद्ध आत्मस्वरूप नहीं दीखता, ऐसा कहते हैं-रागेन रंजिते] रागकरके रंजित [हृदये] मनमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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