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________________ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० १, दोहा ११५दहत्यशेषं पापमिति । तथाहि-ऋद्धिगौरवरसगौरवकवित्ववादित्वगमकववाग्मिवचतुर्विधशब्दगौरवस्वरूपप्रभृतिसमस्तविकल्पजालत्यागरूपेण महावातेन प्रज्वलिता निजशुद्धात्मतत्त्वध्यानाग्निकणिका स्तोकामिकेन्धनराशिमिवान्तर्मुहूर्तेनापि चिरसंचितकर्मराशिं दहतीति । अत्रैवंविधं शुद्धात्मध्यानसामर्थ्यं ज्ञात्वा तदेव निरन्तरं भावनीयमिति भावार्थः ॥ ११४ ॥ अथ हे जीव चिन्ताजालं मुक्त्वा शुद्धात्मस्वरूपं निरन्तरं पश्येति निरूपयति मेल्लिवि सयल अवक्खडी जिय णिचिंतउ होइ । चित्तु णिवेसहि परमपए देउ णिरंजणु जोइ ॥ ११५ ।। मुक्त्वा सकलां चिन्तां जीव निश्चिन्तः भूत्वा । चित्तं निवेशय परमपदे देवं निरञ्जनं पश्य ॥ ११५॥ मेल्लिवि इत्यादि । मेल्लिवि मुक्त्वा सयल समस्तं अवक्खडी देशभाषया चिन्ता जिय हे जीव णिचिंतउ होइ निश्चिन्तो भूखा । किं कुरु । चित्तु णिवेसहि चित्तं निवेशय धारय । क । परमपए निजपरमात्मपदे । पश्चात् किं कुरु । देउ णिरंजणु जोइ देवं निरञ्जनं पश्येति। तद्यथा । हे जीव दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षास्वरूपापध्यानादि समस्तचिन्ताजालं मुक्ता निश्चिन्तो भूखा चित्तं परमात्मस्वरूपे स्थिरं कुरु, तदनन्तरं भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्माञ्जनरहितं देवं परमाकविकलाका मद, वादमें जीतनेका मद, शास्त्रकी टीका बनानेका मद, शास्त्रके व्याख्यान करनेका मद, ये चार तरहका शब्द-गौरव स्वरूप इत्यादि अनेक विकल्प-जालोंका त्यागरूप प्रचंड पवन उससे प्रज्वलित हुई (दहकती हुई) जो निज शुद्धात्मतत्त्वके ध्यानरूप अग्निकी कणी है, जैसे वह अग्निकी कणी काठके पर्वतको भस्म कर देती है, उसी तरह यह समस्त पापोंको भस्म कर डालती है, अर्थात् जन्म जन्मके इकट्ठे किये हुए कर्मोको आधे निमेषमें नष्ट कर देती है, ऐसी शुद्ध आत्मध्यानकी सामर्थ्य जानकर उसी ध्यानकी ही भावना सदा करनी चाहिये ॥११४॥ ____ आगे हे जीव, चिंताओंको छोडकर शुद्धात्मस्वरूपको निरंतर देख, ऐसा कहते हैं-जीव] हे जीव, [सकलां] समस्त [चिंतां] चिंताओंको [मुक्त्वा] छोडकर [निश्चितः भूत्वा] निश्चित होकर तू [चित्तं] अपने मनको [परमपदे] परमपदमें [निवेशय] धारण कर, और [निरंजनं देवं] निरंजनदेवको [पश्य] देख ॥ भावार्थ-हे हंस (जीव), देखे सुने और भोगे हुए भोगोंकी वांछारूप खोटे ध्यान आदि सब चिंताओंको छोडकर अत्यंत निश्चिंत होकर अपने चित्तको परमात्मस्वरूपमें स्थिर कर । उसके बाद भावकर्म द्रव्यकर्म नोकर्मरूप अंजनसे रहित जो निरंजनदेव परम आराधने योग्य अपना शुद्धात्मा है, उसका ध्यान कर । पहले यह कहा था कि खोटे ध्यानको छोड, सो खोटे ध्यानका नाम शास्त्रमें अपध्यान कहा है । अपध्यानका लक्षण कहते हैं - 'बंधवधेत्यादि' । उसका अर्थ ऐसा है कि निर्मल बुद्धिवाले पुरुष जिन-शासनमें उसको अपध्यान कहते हैं, जो द्वेषसे परके मारनेका, बांधनेका अथवा छेदनेका चितवन करे, और रागभावसे परस्त्री आदिका चितवन करे । उस अपध्यानके दो भेद हैं, एक आर्त दसरा रौद्र | सो ये दोनों ही नरक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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