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परमात्मप्रकाशः
-दोहा ११६]
१०७ राध्यं निजशुद्धात्मानं ध्यायेति भावार्थः । अपध्यानलक्षणं कथ्यते—“बन्धवधच्छेदादेद्वेषाद्रागाच्च परकलत्रादेः। आध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदाः॥"॥ ११५॥ अथ शिवशब्दवाच्ये निजशुद्धात्मनि ध्याते यत्सुखं भवति तत्सूत्रत्रयेण प्रतिपादयति
जं सिव-दंसणि परम-सुहु पावहि झाणु करंतु।। तं सुह भुवणि वि अस्थि वि मेल्लिवि देउ अणंतु ॥ ११६ ॥ यत् शिवदर्शने परमसुख प्राप्नोषि ध्यानं कुर्वन् ।
तत् सुख भुवनेऽपि अस्ति नैव मुक्त्वा देवं अनन्तम् ॥ ११६ ॥ जमित्यादि । पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते-जं यत् सिवदंसणि स्वशुद्धात्मदर्शने परमसुहु परमसुखं पावहि पामोषि हे प्रभाकरभट्ट । किं कुर्वन् सन् । झाणु करंतु ध्यानं कुर्वन् सन् तं सुहु तत्पूर्वोक्तमुखं भुवणि वि भुवनेऽपि अत्थि णवि अस्ति नैव । किं कृता। मेल्लिवि मुक्त्वा । कम् । देउ देवम् । कथंभूतम् । अणंतु अनन्तशब्दवाच्यपरमात्मपदार्थमिति । तथाहि-शिवशब्देनात्र विशुद्धज्ञानस्वभावो निजशुद्धात्मा ज्ञातव्यः तस्य दर्शनमवलोकनमनुभवनं तस्मिन् शिवदर्शनेन परमसुख निजशुद्धात्मभावनोत्पन्नवीतरागपरमाह्लादरूपं लभसे। किं कुर्वन् सन् । वीतरागनिर्विकल्पत्रिगुप्तिसमाधिं कुर्वन् । इत्थंभूतं मुखं अनन्तशब्दवाच्यो योऽसौ परमात्मपदार्थस्तं मुक्खा त्रिभुवनेऽपि नास्तीति । अयमत्रार्थः। शिवशब्दवाच्यो योऽसौ निजपरमात्मा स एव रागद्वेषमोहपरिहारेण ध्यातः सम्बनाकुलखलक्षणं परमसुखं ददाति नान्यः कोऽपि निगोदके कारण हैं, इस लिये विवेकियोंको त्यागने योग्य हैं ॥११५॥ ____ आगे शिव शब्दसे कहे गये निज शुद्ध आत्माके ध्यान करनेपर जो सुख होता है, उस सुखको तीन दोहा-सूत्रोंमें वर्णन करते हैं-यत्] जो [ध्यानं कुर्वन्] ध्यान करता हुआ [शिव दर्शने परमसुखं] निज शुद्धात्माके अवलोकनमें अत्यंत सुख [प्राप्नोषि] हे प्रभाकर, तू पा सकता हैं, [तत् सुखं] वह सुख [भुवने अपि] तीनलोकमें भी [अनंतं देवं मुक्त्वा ] परमात्म द्रव्यके सिवाय [नैव अस्ति] नहीं है । भावार्थ-शिव नाम कल्याणका है, सो कल्याणरूप ज्ञानस्वभाव निज शुद्धात्मा जानो, उसका जो दर्शन अर्थात् अनुभव उसमें सुख होता है, वह सुख परमात्माको छोड तीन लोकमें नहीं है । वह सुख क्या है ? जो निर्विकल्प वीतराग परम आनंदरूप शुद्धात्मभाव है, वही सुखी है । क्या करता हुआ यह सुख पाता है ? तीन गुप्तिरूप परमसमाधिमें आरूढ हुआ सता ध्यानी पुरुष ही उस सुखको पाता है । अनंत गुणरूप आत्मतत्त्वके बिना वह सुख तीनों लोकके स्वामी इंद्रादिको भी नहीं है । इस कारण सारांश यह निकला कि शिव नामवाला जो निज शुद्धात्मा है, वही राग द्वेष मोहके त्यागकर ध्यान किया गया आकुलता रहित परम सुखको देता है । संसारी जीवोंके जो इन्द्रियजनित सुख है, वह आकुलतारूप है, और आत्मिक अतींद्रियसुख आकुलता रहित है, सो सुख ध्यानसे ही मिलता है, दूसरा कोई शिव या ब्रह्मा या विष्णु नामका पुरुष देनेवाला नहीं है । आत्माका ही नाम शिव है, विष्णु है, ब्रह्मा है ।।११६॥
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