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-दोहा ११४ ] परमात्मप्रकाशः
१०५ यत् निजद्रव्याद् भिन्न जडं तत् परद्रव्यं जानीहि ।
पुद्गलः धर्माधर्मः नभः कालं अपि पञ्चमं जानीहि ॥ ११३ ॥ जमित्यादि। पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । जं यत् णियदव्वहं निजद्रव्यात् भिण्णु भिन्नं पृथग्भूतं जड्ड जडं तं तत् परदव्यु वियाणि परद्रव्यं जानीहि । तच्च किम् । पुग्गलु धम्माधम्मु णह पुद्गलधर्माधर्मनभोरूपं कालु वि कालमपि पंचमु जाणि पश्चमं जानीहीति। अनन्तचतुष्टयस्वरूपानिजद्रव्याद्वाचं भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मरूपं जीवसंबद्धं शेषं पुद्गलादिपञ्चभेदं यत्सर्वं तदेयमिति ॥ ११३ ॥ अथ वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरन्तर्मुहूर्तेनापि कर्मजालं दहतीति ध्यानसामर्थ्य दर्शयति
जइ णिविसद्ध वि कु वि करइ परमप्पइ अणुराउ । अग्गि-कणी जिम कट-गिरी डहा असेसु वि पाउ ॥ ११४॥ यदि निमिषार्धमपि कोऽपि करोति परमात्मनि अनुरागम् ।
अग्निकणिका यथा काष्ठगिरिं दहति अशेषमपि पापम् ॥ ११४ ॥ जइ इत्यादि । जइ णिविसद्ध वि यदि निमिषार्धमपि कु वि करइ कोऽपि कश्चित् करोति । किं करोति । परमप्पइ अणुराउ परमात्मन्यनुरागम् । तदा किं करोति । अग्गिकणी जिम कट्टगिरी अग्निकणिका यथा काष्ठगिरिं दहति तथा डहइ असेसु वि पाउ शिष्यने प्रश्न किया कि परद्रव्य क्या है ? उसका समाधान श्रीगुरु करते हैं-यत्] जो [निजद्रव्यात्] आत्मपदार्थसे [भिन्नं] जुदा [जडं] जड पदार्थ है, [तत्] उसे [परद्रव्यं] परद्रव्य [जानीहि] जानो, और वह परद्रव्य [पुद्गलः धर्माधर्मः नभः कालं अपि पंचमं] पुद्गल धर्म अधर्म आकाश और पाँचवाँ कालद्रव्य [जानीहि] ये सब परद्रव्य जानो । भावार्थ-द्रव्य छह हैं, उनमेंसे पाँच जड और जीवको चैतन्य जानो । पुद्गल धर्म अधर्म काल आकाश ये सब जड हैं, इनको अपनेसे जुदा जानो और जीव भी अनंत हैं, उन सबोंको अपनेसे भिन्न जानो । अनंतचतुष्टयस्वरूप अपना आत्मा है, उसीको निज (अपना) जानो, और जीवके भावकर्मरूप रागादिक तथा द्रव्यकर्म, ज्ञानावरणादि आठ कर्म, और शरीरादिक नोकर्म, और इनका संबंध अनादिसे है, परंतु जीवसे भिन्न है, इसलिये अपने मत मानो । पुद्गलादि पाँच भेद जड पदार्थ सब हेय जानो
और अपना स्वरूप ही उपादेय है, उसीका आराधन करो ॥११३॥ ___ आगे एक अन्तर्मुहूर्तमें कर्म-जालको वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूप अग्नि भस्म कर डालती है ऐसी समाधिकी सामर्थ्य है, वही दिखाते हैं-यदि] जो [निमिषार्धमपि] आधे निमेषमात्र भी [कोऽपि] कोई [परमात्मनि] परमात्मामें [अनुरागं] प्रीतिको [करोति] करे तो [यथा] जैसे [अग्निकणिका] अग्निकी कणी [काष्ठगिरिं] काठके पहाडको [दहति] भस्म करती है, उसी तरह [अशेष अपि पापं] सब ही पापोंको भस्म कर डाले । भावार्थ-ऋद्धिका गर्व, रसायनका गर्व अर्थात् पारा वगैरह आदि धातुओंके भस्म करनेका मद, अथवा नौ रसके जाननेका गर्व,
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