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________________ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० १, दोहा ११२णियमें जेण हवेइ येन कारणेन यत्र स्वशुद्धात्मस्वरूपे मतिस्तत्रैव गतिः । कस्यैव । जीवजीवस्यैव अथवा बहुवचनपक्षे जीवानामेव निश्चयेन भवतीति । अयमत्र भावार्थः । यधार्तरौद्राधीनतया स्वशुद्धात्मभावनाच्युतो भूत्वा परभावेन परिणमति तदा दीर्घसंसारी भवति, यदि पुननिश्चयरबत्रयात्मके परमात्मतत्त्वे भावनां करोति तर्हि निर्वाणं पामोति इति ज्ञात्वा सर्वरागादिविकल्पत्यागेन तत्रैव भावना कर्तव्येति ॥ १११ ॥ अथ जहि मइ तहि गइ जीव तु मरणु वि जेण लहेहि । ते परभु मुएवि मई मा पर-दव्वि करेहि ॥ ११२॥ यत्र मतिः तत्र गतिः जीव त्वं मरणमपि येन लभसे ।। तेन परब्रह्म मुक्त्वा मतिं मा परद्रव्ये कार्षीः ॥ ११२ ॥ जहिं मइ तहिं गइ जीव तुहुं मरणु वि जेण लहेहि यत्र मतिस्तत्र गतिः। हे जीव लं मरणेन कृखा येन कारणेन लभसे तें परवंभु मुएवि मई मा परदव्वि करेहि तेन कारणेन परब्रह्मशब्दवाच्यं शुद्धद्रव्याथिकनयेन टङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावं वीतरागसदानन्दैकमुखामृतरसपरिणतं निजशुद्धात्मतत्त्वं मुक्खा मति चित्तं परद्रव्ये देहसंगादिषु मा कार्षीरिति तात्पर्यार्थः ॥ ११२ ॥ एवं सूत्रचतुष्टयेनान्तरस्थले परलोकशब्दव्युत्पत्त्या परलोकशब्दवाच्यस्य परमात्मनो व्याख्यानं गतम् । तदनन्तरं किं तत् परद्रव्यमिति प्रश्ने प्रत्युत्तरं ददाति जं णियव्वहँ भिण्णु जडु तं पर-दव्यु वियाणि । पुग्गलु धम्माधम्मु णहु कालु वि पंचमु जाणि ।। ११३ ।। ही गति होती है, जिन जीवोंका मन निज-वस्तुमें है, उनको निज पदकी प्राप्ति होती है, इसमें संदेह नहीं है । भावार्थ-यदि आर्तध्यान रौद्रध्यानकी आधीनतासे अपने शुद्धात्माकी भावनासे रहित हुआ रागादिक परभावोंस्वरूप परिणमन करता है, तो वह दीर्घसंसारी होता है, और यदि निश्चयरत्नत्रयस्वरूप परमात्मतत्त्वमें भावना करता है, तो वह मोक्ष पाता है । ऐसा जानकर सब रागादि विकल्पोंको त्यागकर उस परमात्मतत्त्वमें ही भावना करनी चाहिये ॥१११॥ आगे फिर भी इसी बातको दृढ करते हैं-जीव] हे जीव [यत्र मतिः] जहाँ तेरी बुद्धि है, [तत्र गतिः] वहींपर गति है, उसको [येन] जिस कारणसे [त्वं मृत्वा] तू मरकर [लभसे] पावेगा [तेन] इसलिये तू [परब्रह्म] परमब्रह्मको [मुक्त्वा ] छोडकर [परद्रव्ये] परद्रव्यमें [मति] बुद्धिको [मा कार्षीः] मत कर । भावार्थ-शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे टांकीका सा गढ़ा हुआ अघटितघाट, अमूर्तिक पदार्थ, ज्ञायकमात्र स्वभाव, वीतराग, सदा आनन्दरूप, अद्वितीय अतींद्रिय सुखरूप, अमृतके रसकर तृप्त, ऐसे निज शुद्धात्मतत्त्वको छोडकर द्रव्यकर्म भावकर्म नोकर्ममें या देहादि परिग्रहमें मनको मत लगा ॥११२।। इस प्रकार पहले महाधिकारमें चार दोहा सूत्रोंकर अंतरस्थलमें परलोक शब्दका अर्थ परमात्मा किया । आगे परलोक (परमात्मा) में ही मन लगा, परद्रव्यसे ममता छोड ऐसा कहा गया था, उसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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