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________________ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० १, दोहा ९८क्षणेनान्तर्मुहूर्तेनापि । तथाहि । समस्तशुभाशुभसंकल्पविकल्परहितेन स्वशुद्धात्मतत्त्वध्यानेनान्तर्मुहूर्तेन मोक्षो लभ्यते तेन कारणेन तदेव निरन्तरं ध्यातव्यमिति । तथा चोक्तं बृहदाराधनाशास्त्रे । षोडशतीर्थकराणां एकक्षणे तीर्थकरोत्पत्तिवासरे प्रथमे श्रामण्यबोधसिद्धिः अन्तर्मुहर्तन निवृत्ता। अत्राह शिष्यः । यद्यन्तर्मुहूर्तपरमात्मध्यानेन मोक्षो भवति तर्हि इदानीमस्माकं तद्धयानं कुर्वाणानां किं न भवति । परिहारमाह । यादृशं तेषां प्रथमसंहननसहितानां शुक्लध्यानं भवति ताशमिदानीं नास्तीति । तथा चोक्तम्-"अत्रेदानीं निषेधन्ति शुक्लध्यानं जिनोत्तमाः। धर्मध्यानं पुनः माहुः श्रेणिभ्यां माग्विवर्तनम् ॥"। अत्र येन कारणेन परमात्मध्यानेनान्तर्मुहूर्तेन मोक्षो लभ्यते तेन कारणेन संसारस्थितिच्छेदनार्थमिदानीमपि तदेव ध्यातव्यमिति भावार्थः॥९७ ॥ अथ यस्य वीतरागमनसि शुद्धात्मभावना नास्ति तस्य शाखपुराणतपश्चरणानि किं कुर्वन्तीति कथयति अप्पा णिय-मणि णिम्मलउ णियमें वसइ ण जासु। सत्थ-पुराण तव चरणु मुक्खु वि करहिं कि तासु ।। ९८ ।। आत्मा निजमनसि निर्मलः नियमेन वसति न यस्य । .... शास्त्रपुराणानि तपश्चरणं मोक्ष अफि कुर्वन्ति किं तस्य ।। ९८॥ अप्पा णियमणि णिम्मलउ णियमें वसइ ण जासु आत्मा निजमनसि निर्मलो क्षणमात्रमें [परमपदं] मोक्षपद [लभ्यते] मिलता है ॥ भावार्य-सब शुभाशुभ संकल्प विकल्प रहित निजशुद्ध आत्मस्वरूपके ध्यान करनेसे शीघ्र ही मोक्ष मिलता है, इसलिये वही हमेशा ध्यान करने योग्य है । ऐसा ही बृहदाराधना शास्त्र में कहा है । सोलह तीर्थंकरोंको एक ही समय तीर्थंकरोंके उत्पत्तिके दिन पहले चारित्र ज्ञानकी सिद्धि हुई, फिर अंतर्मुहूर्तमें मोक्ष हो गया । यहाँपर शिष्य प्रश्न करता है, कि यदि परमात्माके ध्यानसे अंतर्मुहूर्तमें मोक्ष होता है, तो इस समय ध्यान करनेवाले हम लोगोंको क्यों नहीं होता ? उसका समाधान इस तरह है कि जैसा निर्विकल्प शुक्लध्यान वज्रवृषभनाराचसंहननवालोंको चौथे कालमें होता है, वैसा अब नहीं हो सकता । ऐसा ही दूसरे ग्रंथोंमें कहा है-'अत्रेत्यादि' । इसका अर्थ यह है, कि श्रीसर्वज्ञवीतरागदेव इस भरतक्षेत्रमें इस पंचमकालमें शुक्लध्यानका निषेध करते हैं, इस समय धर्मध्यान हो सकता है, शुक्लध्यान नहीं हो सकता । उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी दोनों ही इस समय नहीं हैं, सातवाँ गुणस्थानतक गुणस्थान है, ऊपरके गुणस्थान नहीं हैं । इस जगह तात्पर्य यह है, कि जिस कारण परमात्माके ध्यानसे अंतर्मुहूर्तमें मोक्ष होता है, इसलिये संसारकी स्थिति घटानेके वास्ते अब भी धर्मध्यानका आराधन करना चाहिये, जिससे परम्पराय मोक्ष भी मिल सकता है ॥९७॥ __ आगे ऐसा कहते हैं, कि जिसके राग रहित मनमें शुद्धात्माकी भावना नहीं है, उसके शास्त्र पुराण तपश्चरण क्या कर सकते हैं ? अर्थात् कुछ भी नहीं कर सकते-[यस्य] जिसके Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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