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-दोहा ९९]
परमात्मप्रकाशः नियमेन वसति तिष्ठति न यस्य सत्थपुराणहं तवचरणु मुक्खु वि करहिं कि तासु शाखपुराणानि तपधरणं च मोलमपि किं कुर्वन्ति तस्येति । तद्यथा । वीतरागनिस्किलसमापि समा यस्य शुद्धात्मभावना नास्ति तस्य शाखपुराणतपश्चरणानि निरर्थकानि भवन्ति । तर्हि किं सर्वथा निष्फलानि । नैवम् । यदि वीतरागसम्यक्तरूपस्वशुद्धात्मोपादेयभावनासहितानि भवन्ति सदा मोक्षस्यैव बहिरासहकारिकारणानि भवन्ति तदभावे पुण्यवन्धकारणानि भवन्ति । मिथ्यासरागादिसहितानि पापबन्धकारणानि च विद्यानुवादसंज्ञितदशमपूर्वश्रुतं पठिसा भर्गपुरुषादिवदिति भावार्थः॥ ९८॥ अथात्मनि ज्ञाते सर्व शातं भवतीति दर्शयति
जोइय अप्पे जाणिएण जगु जाणियउ हह । अप्पहँ केरह भावडइ विविउ जेण वसेइ ॥९९ । योगिन् आत्मना ज्ञातेन जगत् ज्ञातं भवति ।
आत्मनः संबन्धिनि भावे बिम्बितं येन वसति ॥ ९९ ॥ जोइय अप्पें जाणिएण हे योगिन् आत्मना ज्ञातेन। किं भवति । जगु जाणियउ हवेइ जगत्रिभुवनं जातं भवति। कस्मात् । अप्पई केरह भावडइ विविउ जेण वसेइ आत्मनः संबन्धिनि भावे केवलज्ञानपर्याये बिम्बितं प्रतिबिम्बितं येन कारणेन वसति तिष्ठतीति । अयमर्थः। [निजमनसि] निज मनमें [निर्मलः आत्मा] निर्मल आत्मा [नियमेन] निश्चयसे [न वसति] नहीं रहता, [तस्य] उस जीवके [शास्त्रपुराणानि] शास्त्र पुराण [तपश्चरणमपि] तपस्या भी [किं] क्या [मोक्षं] मोक्षको [कुर्वति] कर सकते हैं ? कभी नहीं कर सकते ॥ भावार्थ-वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूप शुद्धभावना जिसके नहीं है, उसके शास्त्र पुराण तपश्चरणादि सब व्यर्थ हैं । यहाँ शिष्य प्रश्न करता है, कि क्या बिलकुल ही निरर्थक हैं ? उसका समाधान ऐसा है, कि बिलकुल तो नहीं है, लेकिन वीतराग सम्यक्त्वरूप निज शुद्धात्माकी भावना सहित हो, तब तो मोक्षके ही बाह्य सहकारी कारण हैं, यदि वे वीतरागसम्यक्त्वके अभावरूप हों तो पुण्यबंधके कारण हैं, और यदि मिथ्यात्वरागादि सहित हों तो पापबंधके कारण हैं, जैसे कि रुद्र वगैरह विद्यानुवादनामा दशवें पूर्वतक शास्त्र पढकर भ्रष्ट हो जाते हैं ॥९८॥
आगे जिन भव्यजीवोंने आत्मा जान लिया, उन्होंने सब जाना ऐसा दिखलाते हैं योगिन्] हे योगी [आत्मना ज्ञातेन] एक अपने आत्माके जाननेसे [जगत् ज्ञातं भवति] यह तीन लोक जाना जाता है [येन] क्योंकि [आत्मनः संबंधिनि भावे] आत्माके भावरूप केवलज्ञानमें [विम्बितं] यह लोक प्रतिबिंबित हुआ [वसति] बस रहा है । भावार्थ-वीतराग निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानसे शुद्धात्मतत्त्वके जाननेपर समस्त द्वादशांग शास्त्र जाना जाता है । क्योंकि जैसे रामचंद्र पांडव भरत सगर आदि महान् पुरुष भी जिनराजकी दीक्षा लेकर फिर द्वादशांगको पढकर द्वादशांग पढनेका फल निश्चयरत्नत्रयस्वरूप जो शुद्धपरमात्मा उसके ध्यानमें लीन हुए तिष्ठे थे । इसलिये वीतराग
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