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________________ परमात्मप्रकाशः -दोहा ९७ ] झाइयह हे योगिन् , एक एव ध्यायते । यः आत्मा कयंभूतः । जो तइलोयह सारु यः परमात्मा त्रैलोक्यस्य सारभूत इति । तद्यथा। वीतरागचिदानन्दैकस्वभावात्मतत्त्वसम्यश्रद्धानज्ञानानुभूतिरूपाभेदरनत्रयलक्षणनिर्विकल्पत्रिगुमिसमाधिपरिणतो निश्चयनयेन खात्मैव सम्यक्त्रं अन्यः सर्वोऽपि व्यवहारस्तेन कारणेन स एव ध्यातव्य इति । अत्र यया द्राक्षाकरिश्रीखण्डादिबहुद्रव्यनिष्पनमपि पानकमभेदविवक्षया कृलैकं भण्यते, तथा शुद्धात्मानुभूतिलक्षणैर्निश्चयसम्यग्दर्शनशानचारित्रैर्बहुभिः परिणतो अनेकोऽप्यात्मा सभेदविवक्षया एकोऽपि भण्यत इति भावार्थः। तथा चोक्तं अभेदरनत्रयलक्षणम्-"दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः । स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बन्धः॥"॥ ९६ ॥ अथ निर्मलमान्मानं ध्यायख येन ध्यातेनान्तर्मुहूर्तेनैव मोक्षपदं लभ्यत इति निरूपयति अप्पा झायहि णिम्मलउ कि बहुएँ अण्णेण ।। जो झायंतहँ परम-पउ लन्भइ एक-खणेण ॥ ९७ ॥ आत्मानं घ्यायस्व निर्मल किं बहुना अन्येन। यं ध्यायमानानां परमपदं लभ्यते एकक्षणेन ॥ ९७ ॥ अप्पा झायहि णिम्मलउ आत्मानं ध्यायस्व । कथंभूतं निर्मलम् । किं बहुएं अण्णेण किंबहुनान्येन शुद्धात्मबहिर्भूतेन रागादिविकल्पजालमालाप्रपञ्चेन । जो झायंतह परमपउ लभह यं परमात्मानं ध्यायमानानां परमपदं लभ्यते । केन कारणभूतेन । एक्कखणेण एकसम्यक् श्रद्धान, ज्ञान, अनुभवरूप जो अभेदरत्नत्रय वही जिसका लक्षण है, तथा मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तिरूप समाधिमें लीन निश्चयनयसे निज आत्मा ही निश्चयसम्यक्त्व है, अन्य सब व्यवहार है । इस कारण आत्मा ही ध्यावने योग्य है । जैसे दाख, कपूर, चन्दन वगैरह बहुत द्रव्योंसे बनाया गया जो पीनेका रस वह यद्यपि अनेक रसरूप है, तो भी अभेदनयकर एक पानवस्तु कही जाती है, उसी तरह शुद्धात्मानुभूतिस्वरूप निश्चयसम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रादि अनेक भावोंसे परिणत हुआ आत्मा अनेकरूप है, तो भी अभेदनयकी विवक्षासे आत्मा एक ही वस्तु है । यही अभेदरत्नत्रयका स्वरूप जैनसिद्धांतोंमें हरएक जगह कहा है-"दर्शनमित्यादि" इसका अर्थ ऐसा है, कि आत्माका निश्चय वह सम्यग्दर्शन है, आत्माका जानना वह सम्यग्ज्ञान है, और आत्मा निश्चल होना वह सम्यक्चारित्र है । यह निश्चयरत्नत्रय साक्षात् मोक्षका कारण है, इनसे बंध कैसे हो सकता है ? कभी नहीं हो सकता ॥९६॥ आगे ऐसा कहते हैं, कि जो निर्मल आत्माको ही ध्यावो, जिसके ध्यान करनेसे अंतर्मुहूर्तमें (तत्काल) मोक्षपदकी प्राप्ति हो-हे योगी, तू [निर्मलं आत्मानं] निर्मल आत्माका ही [ध्यायस्व] ध्यान कर, [अन्येन बहुना किं] और बहुत पदार्थोंसे क्या ? देश काल पदार्थ आत्मासे भिन्न हैं, उनसे कुछ प्रयोजन नहीं है, रागादि-विकल्पजालके समूहोके प्रपंचसे क्या फायदा ? एक निज स्वरूपको ध्यावो, [यं] जिस परमात्माके [ध्यायमानानां] ध्यान करनेवालोंको [एकक्षणेन] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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