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योगीन्दुदेवविरचितः [अ० १, दोहा ९६पुरुषगुणस्मरणार्थ तीर्यं भवति, तथापि वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूपनिश्छिद्रपोतेन संसारसमुद्रतरणसमर्थखानिश्चयनयेन खात्मतत्त्वमेव तीर्थ भवति तदुपदेशात्पारंपर्येण परमात्मतत्त्वलाभो भवतीति । व्यवहारेण शिक्षादीक्षादायको यद्यपि गुरुर्भवति, तथापि निश्चयनयेन पश्चेन्द्रियविषयप्रभृतिसमस्तविभाषपरिणामपरित्यागकाले संसारविच्छित्तिकारणखात् स्वशुद्धात्मैव गुरुः । यद्यपि माथमिकापेक्षया सविकल्पापेक्षया चित्तस्थितिकरणार्य तीर्थकरपुण्यहेतुभूतं साध्यसाधकभावेन परंपरया निर्वाणकारणं च जिनप्रतिमादिकं व्यवहारेण देवो भण्यते, तथापि निश्चयनयेन परमाराध्यखाद्वीतरागनिर्विकल्पत्रिगुप्तपरमसमाधिकाले स्वशुद्धात्मस्वभाव एव देव इति । एवं निश्चयव्यवहाराभ्यां साध्यसाधकभावेन तीर्थगुरुदेवतास्वरूपं ज्ञातव्यमिति भावार्थः ॥९५॥ अथ निश्चयेनात्मसंवित्तिरेव दर्शनमिति प्रतिपादयति
अप्पा दसणु केवलु वि अण्णु सव्वु ववहारु । एकु जि जोइय झाइयइ जो तइलोयहँ सारु ॥ ९६ ॥ आत्मा दर्शनं केवलोऽपि अन्यः सर्वः व्यवहारः ।
एक एव योगिन् ध्यायते यः त्रैलोक्यस्य सारः ॥ ९६ ॥ अप्पा दसणु केवलु वि आत्मा दर्शनं सम्यक्वं भवति । कथंभूतोऽपि । केवलोऽपि । अण्णु सव्वु ववहारु अन्यः शेषः सर्वोऽपि व्यवहारः । तेन कारणेन एकु जि जोइय है, वही निश्चयकर तीर्थ है, उसके उपदेश-परम्परासे परमात्मतत्त्वका लाभ होता है । यद्यपि व्यवहारनयकर दीक्षा शिक्षाका देनेवाला दिगम्बर गुरु होता है, तो भी निश्चयनयकर विषय कषाय आदिक समस्त विभावपरिणामोंके त्यागनेके समय निजशुद्धात्मा ही गुरु है, उसीसे संसारकी निवृत्ति होती है । यद्यपि प्रथम अवस्था चित्तकी स्थिरताके लिये व्यवहारनयकर जिनप्रतिमादिक देव कहे जाते हैं, और वे परंपरासे निर्वाणके कारण हैं, तो भी निश्चयनयकर परम आराधने योग्य वीतराग निर्विकल्पपरमसमाधिके समय निज शुद्धात्मभाव ही देव हैं, अन्य नहीं । इस प्रकार निश्चय व्यवहारनयकर साध्य-साधक-भावसे तीर्थ गुरु देवका स्वरूप जानना चाहिये । निश्चयदेव निश्चयगुरु निश्चयतीर्थ निज आत्मा ही है, वही साधने योग्य है, और व्यवहारदेव जिनेंद्र तथा उनकी प्रतिमा, व्यवहारगुरु महामुनिराज, व्यवहारतीर्थ सिद्धक्षेत्रादिक ये सब निश्चयके साधक हैं, इसलिये प्रथम अवस्थामें आराधने योग्य हैं । तथा निश्चयनयकर ये सब पदार्थ हैं, इनसे साक्षात् सिद्धि नहीं है, परम्परासे है । यहाँ श्रीपरमात्मप्रकाश अध्यात्म-ग्रंथमें निश्चयदेव गुरु तीर्थ अपना आत्मा ही है, उसे आराधनकर अनंत सिद्ध हुए और होवेंगे, ऐसा सारांश हुआ ॥९५॥
आगे निश्चयनयकर आत्मस्वरूप ही सम्यग्दर्शन है-[केवलः आत्मा अपि] केवल (एक) आत्मा ही [दर्शनं] सम्यग्दर्शन है, [अन्यः सर्वः व्यवहारः] दूसरा सब व्यवहार है, इसलिये [योगिन्] हे योगी, [एक एव ध्यायते] एक आत्मा ही ध्यान करने योग्य है, [यः त्रैलोक्यस्य सारः] जो कि तीन लोकमें सार है ॥ भावार्थ-वीतराग चिदानंद अखंड स्वभाव, आत्मतत्त्वका
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