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________________ ८७ दोहा ९३ ] पादकमहाधिकारमध्ये मिथ्यादृष्टिभावनाविपरीतेन सम्यग्दृष्टिभावनास्थितेन सूत्राष्टकं समाप्तम् ।। अथानन्तरं सामान्यभेदभावनामुख्यत्वेन 'अप्पा संजमु ' इत्यादि प्रक्षेपकान् विहायैकत्रिंशत्सूत्रपर्यन्तमुपसंहाररूपा चूलिका कथ्यते । तद्यथा यदि पुण्यपापादिरूपः परमात्मा न भवति तर्हि कीदृशो भवतीति प्रश्न प्रत्युत्तरमाह - अप्पा संजम सीलु तर अप्पा दंसणु णाणु । अप्पा सासय- मोक्ख-पड जाणंतर अप्पाणु ॥ ९३ ॥ आत्मा संयमः शीलं तपः आत्मा दर्शनं ज्ञानम् । आत्मा शाश्वतमोक्षपदं जानन् आत्मानम् ॥ ९३ ॥ अप्पा संजम सीलु तर अप्पा दंसणु णाणु अप्पा सासयमोक्खपउ आत्मा संयमो भवति शीलं भवति तपश्चरणं भवति आत्मा दर्शनं भवति ज्ञानं भवति शाश्वतमोक्षपदं च भवति । अथवा पाठान्तरं ‘सासयमुक्खपहुं' शाश्वतमोक्षस्य पन्था मार्गः, अथवा 'सासय सुक्खपउ ' शाश्वतसौख्यपदं स्वरूपं च भवति । किं कुर्बन् सन् । जाणंतर अप्पाणु जानन्ननुभवन् । कम् । आत्मानमिति । तद्यथा । बहिरङ्गेन्द्रियसंयमप्राणसंयमबलेन साध्यसाधकभावेन निश्चयेन स्वशुद्धात्मनि संयमनात् स्थितिकरणात् संयमो भवति, बहिरङ्गसहकारिकारणभूतेन कामक्रोधविवर्जनलक्षणेन व्रतपरिरक्षणशीलेन निश्चयेनाभ्यन्तरे स्वशुद्धात्मद्रव्यनिर्मलानुभवनेन शीलं भवति । ऐसे बहिरात्मा अंतरात्मा परमात्मारूप तीन प्रकारके आत्माका जिसमें कथन है, ऐसे पहले अधिकारमें मिथ्यादृष्टिकी भावनासे रहित जो सम्यग्दृष्टिकी भावना उसकी मुख्यतासे आठ दोहा सूत्र कहे । आगे भेदविज्ञानकी मुख्यतासे "अप्पा संजमु" इत्यादि इकतीस दोहापर्यंत क्षेपक सूत्रोंको छोडकर पहला अधिकार पूर्ण करते हुए व्याख्यान करते हैं उसमें भी जो शिष्यने प्रश्न किया, कि यदि पुण्य पापादिरूप आत्मा नहीं है, तो कैसा है ? ऐसे प्रश्नका श्रीगुरु समाधान करते हैं -[ आत्मा ] निज गुण-पर्यायका धारक ज्ञानस्वरूप चिदानंद ही [ संयमः ] संयम है, [शीलं तपः] शील है, तप है, [आत्मा] आत्मा [ दर्शनं ज्ञानं ] दर्शनज्ञान है, और [ आत्मानं जानन् ] अपनेको जानता अनुभवता हुआ [आत्मा] आत्मा [ शाश्वतमोक्षपदं] अविनाशी सुखका स्थान मोक्षका मार्ग है । इसी कथनको विशेषताकर कहते हैं | भावार्थ- पाँच इन्द्रियाँ और मनका रोकना व छह कायके जीवोंकी दयास्वरूप ऐसे इन्द्रियसंयम तथा प्राणसंयम इन दोनोंके बलसे साध्य-साधक भावकर निश्चयसे अपने शुद्धात्मस्वरूपमें स्थिर होनेसे आत्माको संयम कहा गया है, बहिरंग सहकारी निश्चय शीलका कारणरूप जो काम क्रोधादिके त्यागरूप व्रतकी रक्षा वह व्यवहार शील है, और निश्चयकर अंतरंगमें अपने शुद्धात्मद्रव्यका निर्मल अनुभव वह शील कहा जाता है, सो शीलरूप आत्मा ही कहा गया है, बाह्य सहकारी कारणभूत जो अनशनादि बारह प्रकारका तप है, उससे तथा निश्चयकर अंतरंगमें सब परद्रव्यकी इच्छाके रोकनेसे परमात्मस्वभाव ( निजस्वभाव ) में प्रतापरूप तिष्ठ रहा है, इस कारण और समस्त विभावपरिणामोंके जीतनेसे Jain Education International परमात्मप्रकाशः For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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