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________________ ८८ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० १, दोहा ९४बहिरङ्गेन सहकारिकारणभूतानशनादिद्वादशविधतपश्चरणेन निश्चयनयेनाभ्यन्तरे समस्तपरद्रव्येच्छानिरोधेन परमात्मस्वभावे प्रतपनाद्विजयनात्तपश्चरणं भवति । स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिकरणान्निश्चयसम्यक्त्वं भवति । वीतरागखसंवेदनज्ञानानुभवनानिश्चयज्ञानं भवति । मिथ्याखरागादिसमस्तविकल्पजालत्यागेन परमात्मतत्त्वे परमसमरसीभावपरिणमनाच मोक्षमार्गों भवतीति । अत्र बहिरजद्रव्येन्द्रियसंयमादिप्रतिपादनादभ्यन्तरे शुद्धात्मानुभूतिरूपभावसंयमादिपरिणमनादुपादेयसुखसाधकखादात्मैवोपादेय इति तात्पर्यार्थः ॥ ९३॥ अथ खशुद्धात्मसंवित्तिं विहाय निश्चयनयेनान्यदर्शनशानचारित्रं नास्तीत्यभिप्रायं मनसि संपधार्य यत्रं कथयति अण्णु जि दसणु अत्थि ण वि अण्णु जि अत्थि ण णाणु । अण्णु जि चरणु ण अस्थि जिय मेल्लिवि अप्पा जाणु ॥ ९४ ॥ अन्यद् एव दर्शनं अस्ति नापि अन्यदेव अस्ति न ज्ञानम् ।। अन्यद् ख चरणं न अस्ति जीव मुक्त्वा आत्मानं जानीहि ॥ ९४ ॥ अण्णु जि दसणु अत्थि ण वि अण्णु जि अस्थि ण णाणु अण्णु जि चरणु ण भत्थि जिय अन्यदेव दर्शनं नास्ति अन्यदेव ज्ञानं नास्ति अन्यदेव चरणं नास्ति हे जीव । किं कृता । मेल्लिवि अप्पा जाणु मुक्ता । कम् । आत्मानं जानीहीति । तथाहि यद्यपि पद्रव्यपश्चास्तिकायसप्ततत्त्वनवपदार्थाः साध्यसाधकभावेन निश्चयसम्यक्खहेतुखाद्व्यवहारेण आत्मा ही 'तपश्चरण' है, और आत्मा ही निजस्वरूपकी रुचिरूप सम्यक्त्व है, वह सर्वथा उपादेयरूप है, इससे सम्यग्दर्शन आत्मा ही है, अन्य कोई नहीं है, वीतराग स्वसंवेदनज्ञानके अनुभवसे आत्मा ही है, अन्य कोई नहीं है, वीतरागसंवेदनज्ञानके अनुभवसे आत्मा ही निश्चयज्ञानरूप है, और मिथ्यात्व रागादि समस्त विकल्पजालको त्यागकर परमात्मतत्त्वमें परमसमरसीभावके परिणमनसे आत्मा ही मोक्षमार्ग है । तात्पर्य यह है, कि बहिरंग द्रव्येद्रिय-संयमादिके पालनेसे अंतरंगमें शुद्धात्माके अनुभवरूप भावसंयमादिकके परिणमनसे उपादेयसुख जो अतीन्द्रियसुख उसके साधकपनेसे आत्मा ही उपादेय है ॥१३॥ ___ आगे निज शुद्धात्मस्वरूपको छोडकर निश्चयनयसे दूसरा कोई दर्शन ज्ञान चारित्र नहीं है, इस अभिप्रायको मनमें रखकर गाथा-सूत्र कहते हैं-[जीव] हे जीव, [आत्मानं] आत्माको [मुक्त्वा ] छोडकर [अन्यदपि] दूसरा कोई भी [दर्शनं] दर्शन [न एव] नहीं है, [अन्यदपि] अन्य कोई [झानं न अस्ति] ज्ञान नहीं है, [अन्यद् एव चरणं नास्ति] अन्य कोई चारित्र नहीं है, ऐसा [जानीहि] तू जान, अर्थात् आत्मा ही दर्शन ज्ञान चारित्र है, ऐसा संदेह रहित जानो । भावार्थ-यद्यपि छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व, नौ पदार्थका श्रद्धान कार्य-कारणभावसे निश्चयसम्यक्त्वका कारण होनेसे व्यवहारसम्यक्त्व कहा जाता है, अर्थात् व्यवहार साधक है, निश्चय साध्य है, तो भी निश्चयनयकर एक वीतराग परमानंदस्वभाववाला शुद्धात्मा ही उपादेय है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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