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________________ ८६ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० १, दोहा ९२आत्मा पण्डितो न भवति मूखों नैव ईश्वरः समर्थों नैव निःस्वो दरिद्रः तरुणो वृद्धो बालोऽपि नैव । पण्डितादिस्वरूपं यद्यात्मस्वभावो न भवति तर्हि किं भवति । अण्णु वि कम्मधिसेसु अन्य एव कर्मजनितोऽयं विभावपर्यायविशेष इति । तद्यथा । पण्डितादिसंबन्धान् यद्यपि व्यवहारनयेन जीवखभावान् तथापि शुद्धनिश्चयेन शुद्धात्मद्रव्याद्भिनान् सर्वप्रकारेण हेयभूतान् वीतरागस्वसंवेदनज्ञानभावनारहितोऽपि वहिरात्मा खस्मिनियोजयति तानेव पण्डितादिविभावपर्यायांस्तद्विपरीतो योऽसौ चान्तरात्मा परस्मिन् कर्मणि नियोजयतीति तात्पर्यार्थः॥९१॥अथ पुण्णु वि पाउ वि कालु णहु धम्माधम्मु वि काउ । एक्कु वि अप्पा होइ णवि मेल्लिवि चेयण-भाउ ॥ ९२ ॥ पुण्यमपि पापमपि कालः नभः धर्माधर्ममपि कायः । एकमपि आत्मा भवति नैव मुक्त्वा चेतनभावम् ॥ ९२ ॥ पुण्णु वि पाउ वि कालु गहु धम्माधम्मु वि काउ पुण्यमपि पापमपि काल: नमः आकाशं धर्माधर्ममपि कायः शरीरं, एक्कु वि अप्पा होइ णवि मेल्लिवि चेयणभाउ इदं पूर्वोक्तमेकमप्यात्मा न भवति । किं कृता । मुक्ता किं चेतनभावमिति । तथाहि । व्यवहारनयेनात्मनः सकाशादभिमान् शुद्धनिश्चयेन भिन्नान् हेयभूतान् पुण्यपापादिधर्माधर्मान्मिथ्यावरागादिपरिणतो बहिरात्मा खात्मनि योजयति तानेव पुण्यपापादिसमस्तसंकल्पविकल्पपरिहारभावनारूपे स्वशुद्धात्मद्रव्ये सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाभेदरबत्रयात्मके परमसमाधौ स्थितोऽन्तरात्मा शुद्धात्मनः सकाशात् पृथग् जानातीति तात्पर्यार्थः ॥ ९२ ॥ एवं त्रिविधात्मपतिये सब पर्यायें आत्मासे जुदे कर्मक विशेष हैं, अर्थात् कर्मसे उत्पन्न हुए विभाव-पर्याय हैं । भावार्थ-यद्यपि शरीरके सम्बन्धसे पंडित वगैरह भेद व्यवहारनयसे जीवके कहे जाते हैं, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर शुद्धात्मद्रव्यसे भिन्न हैं, और सर्वथा त्यागने योग्य हैं । इन भेदोंको वीतरागस्वसंवेदनज्ञानकी भावनासे रहित मिथ्यादृष्टि जीव अपने जानता है, और इन्हींको पंडितादि विभावपर्यायोंको अज्ञानसे रहित सम्यग्दृष्टि जीव अपनेसे जुदे कर्मजनित जानता है ॥९१॥ आगे आत्माका चेतनभाव वर्णन करते हैं-पुण्यमपि] पुण्यरूप शुभकर्म [पापमपि] पापरूप अशुभकर्म [कालः] अतीत अनागत वर्तमान काल [नभः] आकाश [धर्माधर्ममपि] धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य [कायः] शरीर, इनमेंसे [एक अपि] एक भी [आत्मा] आत्मा [नैव भवति] नहीं है, [चेतनभावं मुक्त्वा ] चेतनभावको छोडकर अर्थात् एक चेतनभाव ही अपना है । भावार्थ-व्यवहारनयकर यद्यपि पुण्य पापादि आत्मासे अभिन्न हैं, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर भिन्न हैं, और त्यागने योग्य हैं, उन परभावोंको मिथ्यात्व रागादिरूप परिणत हुआ बहिरात्मा अपने ज़ानता है, और उन्हींको पुण्य पापादि समस्त संकल्प विकल्परहित निज शुद्धात्मद्रव्यमें सम्यक् श्रद्धान ज्ञान चारित्ररूप अभेदरत्नत्रयस्वरूप परमसमाधिमें तिष्ठता सम्यग्दृष्टि जीव शुद्धात्मासे जुदे जानता है ॥९२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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