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योगीन्दुदेवविरचितः [अ० १, दोहा ८९वाच्या वेताम्बरो न भवति । आत्मा एकदण्डित्रिदण्डिहंसपरमहंससंज्ञाः संन्यासी शिखी मुण्डी योगदपाक्षमालातिलकडुलकपोषप्रभृतिवेषधारी नैकोऽपि कश्चिदपि लिङ्गी न भवति । तर्हि कथंभूतो भवति । मानी। तमात्मानं कोऽसौ जानाति योगी ध्यानीति । तथाहि-यद्यप्यात्मा व्यवहारेण वन्दकादिलिङ्गी भन्यते तथापि शुद्धनिश्चयनयेनकोऽपि लिङ्गी न भवतीति । अयमत्र भावार्थः । देहाश्रितं द्रव्यलिजमुपचरितासद्भूतव्यवहारेण जीवखरूपं भण्यते, वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूपं भावलियं तु यद्यपि शुदात्मखरूपसाधकखादुपचारेण शुद्धजीवखरूपं भण्यते, तथापि सूक्ष्मभुद्धनिभयेन न भण्यत इति ।। ८८॥ अथ
अप्पा गुरु णवि सिस्सु णवि वि सामिउ णवि भिच्चु । सूरज कायरु होइ णवि णवि उत्तमु णवि णिच्चु ॥ ८९ ॥ आत्मा गुरुः नैव शिष्यः नैव नैव स्वामी नैव भृत्यः ।
शूरः कातरः भवति नैव नैव उत्तमः नैव नीचः ॥ ८९ ॥ आत्मा गुरुनैव भवति शिष्योऽपि न भवति नैव स्वामी नैव भृत्यः शूरो न भवति कातरो हीनसत्त्वो नैव भवति नैवोत्तमः उत्तमकुलभमतः नैव नीचो नीचकुलपमृत इति । तद्यथा । गुरुशिष्यादिसंबन्धात् यपपि व्यवहारेण जीवस्वरूपांस्तथापि शुद्धनिश्चयेन परमात्मद्रव्याद्भिनान् हेयभूतान् वीतरागपरमानन्देकस्वशुदात्मोपलब्धेश्च्युतो बहिरात्मा खात्मसंबद्धान् करोति तानेव [योगी] ध्यानी मुनि ध्यानारूढ होकर [जानाति] जानता है, ध्यान करता है । भावार्थ-यद्यपि व्यवहारनयकर यह आत्मा वंदकादि अनेक भेषोंको धरता है, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर कोई भी भेष जीवके नहीं है, देहके है । यहाँ देहके आश्रयसे जो द्रव्यलिंग है, वह उपचरितासद्भूतव्यवहारनयकर जीवका स्वरूप कहा जाता है, तो भी निश्चयनयकर जीवका स्वरूप नहीं है । क्योंकि जब देह ही जीवकी नहीं, तो भेष कैसे हो सकता है ? इसलिये द्रव्यलिंग तो सर्वथा ही नहीं है, और वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूप भावलिंग यद्यपि शुद्धात्मस्वरूपका साधक है, इसलिये उपचारनयकर जीवका स्वरूप कहा जाता है, तो भी परमसूक्ष्म शुद्धनिश्चयनयकर भावलिंग भी जीवका नहीं है । भावलिंग साधनरूप है, वह भी परम अवस्थाका साधक नहीं है ॥८८॥ ___ आगे यह गुरु शिष्यादिक भी नहीं हैं-आत्मा] आत्मा [गुरुः नैव गुरु नहीं है, [शिष्यः नैव] शिष्य भी नहीं है, [स्वामी नैव] स्वामी भी नहीं है, [भृत्यः नैव] नौकर नहीं है, [शूरः कातरः नैव] शूरवीर नहीं है, कायर नहीं है, [उत्तमः नैव] उच्चकुली नहीं है, [नीचः नैव भवति और नीचकुली भी नहीं है । भावार्थ-ये सब गुरु, शिष्य, स्वामी, सेवकादि संबंध यद्यपि व्यवहारनयसे जीवके स्वरूप हैं, तो भी शुद्धनिश्चयनयसे शुद्ध आत्मासे जुदे हैं, आत्माके नहीं है, त्यागने योग्य हैं, इन भेदोंको वीतरागपरमानंद निज शुद्धात्माकी प्राप्तिसे रहित बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि जीव अपने समझता है, और इन्हीं भेदोंको वीतराग निर्विकल्पसमाधिमें रहता हुआ अंतरात्मा सम्यग्दृष्टि जीव पर रूप (दूसरे) जानता है ॥८९॥
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