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-दोहा ८८] परमात्मप्रकाशः
८३ अप्पा भणु वइसु ण वि ण वि खत्तिउ ण वि सेस। पुरिसु णांसउ इस्थि ण वि णाणिउ मुणइ असेसु ॥ ८७ ॥ आत्मा ब्राह्मणः वैश्यः नापि नापि क्षत्रियः नापि शेषः ।
पुरुषः नपुंसकः स्त्री नापि ज्ञानी मनुते अशेषम् ॥ ८७ ॥ अप्पा भणु बहसु ण वि ण वि खत्तिउ ण घि सेसु पुरिसु णउंसउ इत्थि ण वि आत्मा ब्रामणो न भवति वैश्योऽपि नैव नापि क्षत्रियो नापि शेषः शूद्रादिः पुरुषनपुंसकत्रीलिङ्गरूपोऽपि नैव । तर्हि किंविशिष्टः । णाणिउ मुणइ असेसु ज्ञानी ज्ञानस्वरूप आत्मा ज्ञानी सन् । किं करोति । मनुते जानाति । कम् । अशेषं वस्तुजातं वस्तुसमूहमिति । तद्यथा। यानेव ब्राह्मणादिवर्णभेदान् पुंल्लिङ्गादिलिङ्गभेदान् व्यवहारेण परमात्मपदार्थादभिन्नान् शुद्धनिश्चयेन भिवान् साक्षाद्धेयभूतान् वीतरागनिर्विकल्पसमाधिच्युतो बहिरात्मा स्वात्मनि योजयति तानेव तद्विपरीतभावनारतोऽन्तरात्मा खशुद्धात्मस्वरूपेण योजयतीति तात्पर्यार्थः ।। ॥ ८७ ॥ अथ
अप्पा बंदउ खवणु ण वि अप्पा गुरउ ण होह। अप्पा लिगिउ एकुण वि णाणिउ जाणइ जोइ ॥८८॥ आत्मा वन्दकः क्षपणः नापि आत्मा गुरवः न भवति ।
आत्मा लिङ्गी एकः नापि ज्ञानी जानाति योगी ॥ ८८ ॥ ___ आत्मा वन्दको बौद्धो न भवति, आत्मा क्षपणको दिगम्बरो न भवति, आत्मा गुरवशब्द
आगे ब्राह्मणादि वर्ण आत्माके नहीं हैं, ऐसा वर्णन करते हैं-आत्मा] आत्मा [ब्राह्मणः वैश्यः नापि] ब्राह्मण नहीं है, वैश्य भी नहीं है, [क्षत्रियः नापि] क्षत्री भी नहीं है, [शेषः] बाकी शूद्र भी [नापि] नहीं है, [पुरुषः नपुंसकः स्त्री नापि] पुरुष नपुंसक स्त्रीलिंगरूप भी नहीं है, [ज्ञानी] ज्ञानस्वरूप हुआ [अशेषं] समस्त वस्तुओंको ज्ञानसे [मनुते] जानता है ।। भावार्थ-जो ब्राह्मणादि वर्ण-भेद हैं, और पुरुष लिंगादि तीन लिंग हैं, वे यद्यपि व्यवहारनयकर देहके संबंधसे जीवके कहे जाते हैं, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर आत्मासे भिन्न हैं, और साक्षात् त्यागने योग्य हैं, उनको वीतरागनिर्विकल्पसमाधिसे रहित मिथ्यादृष्टि जीव अपने जानता है, और उन्हींको मिथ्यात्वसे रहित सम्यग्दृष्टि जीव अपने नहीं समझता । आपको तो वह ज्ञानस्वभावरूप जानता है ॥८७||
आगे वंदक क्षपणकादि भेद भी जीवके नहीं हैं, ऐसा कहते हैं-[आत्मा] आत्मा [वंदकः क्षपणः नापि] बौद्धका आचार्य नहीं है, दिगम्बर भी नहीं है, [आत्मा] आत्मा [गुरवः न भवति] श्वेताम्बर भी नहीं है, [आत्मा] आत्मा [एकः अपि] कोई भी [लिंगी] वेशका धारी [न] नहीं है, अर्थात् एकदंडी, त्रिदंडी, हंस, परमहंस, संन्यासी, जटाधारी, मुंडित, रुद्राक्षकी माला तिलक कुलक घोष वगैरः भेषोंमें कोई भी भेषधारी नहीं है, एक [ज्ञानी] ज्ञानस्वरूप है, उस आत्माको
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