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________________ दोहा ७९] परमात्मप्रकाशः पाडहिं ताई ज्ञानविचक्षणं जीवमुत्पथे पातयन्ति । तानि कर्माणि युगपल्लोकालोकप्रकाशककेवलज्ञानाद्यनन्तगुणविचक्षणं दक्षं जीवमभेदरत्नत्रयलक्षणान्निश्चयमोक्षमार्गात्पतिपक्षभूत उन्मार्गे पातयन्तीति । अत्रायमेवाभेदरनत्रयरूपो निश्चयमोक्षमार्ग उपादेय इत्यभिप्रायः ॥ ७८ ॥ अथ मिथ्यापरिणत्या जीवो विपरीतं तत्त्वं जानातीति निरूपयति जिउ मिच्छरों परिणमिउ विवरिउ तच्चु मुणेह । कम्म-विणिम्मिय भावडा ते अप्पाणु भणेइ ॥ ७९ ॥ जीवः मिथ्यात्वेन परिणतः विपरीतं तत्त्वं मनुते । कर्मविनिर्मितान् भावान् तान् आत्मानं भणति ॥ ७९ ॥ जिउ मिच्छन्तें परिणमिउ विवरिउ तच्चु मुणेइ जीवो मिथ्यात्वेन परिणतः सन् विपरीतं तत्त्वं जानाति, शुद्धात्मानुभूतिरुचिविलक्षणेन मिथ्यात्वेन परिणतः सन् जीवः परमास्मादितत्त्वं च यथावद वस्तुस्वरूपमपि विपरीतं मिथ्यात्वरागादिपरिणतं जानाति । ततश्च किं करोति । कम्मविणिम्मिय भावडा ते अप्पाणु भणेइ कर्मविनिर्मितान् भावान् तानात्मानं भणति, विशिष्टभेदज्ञानाभावागौरस्थूलकृशादिकर्मजनितदेहधर्मात्मानं जानातीत्यर्थः। अत्र तेभ्यः कर्मजनितभावेभ्यो भिन्नो रागादिनिवृत्तिकाले स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति तात्पर्यम् ॥७९॥ अथानन्तरं तत्पूर्वोक्तकमजनितभावान् येन मिथ्यापरिणामेन कृत्वा बहिरात्मा आत्मनि समयमें लोकालोकके प्रकाशनेवाले केवलज्ञान आदिक अनंत गुणोंसे बुद्धिमान चतुर हैं, तो भी इस जीवको वे संसारके कारण कर्म ज्ञानादि गुणोंका आच्छादन करके अभेदरत्नत्रयरूप निश्चयमोक्षमार्गसे विपरीत खोटे मार्गमें डालते हैं, अर्थात् मोक्षमार्गसे भुलाकर भव-वनमें भटकाते हैं । यहाँ यह अभिप्राय है, कि संसारके कारण जो कर्म और उनके कारण मिथ्यात्व रागादि परिणाम हैं, वे सब हेय हैं, तथा अभेदरत्नत्रयरूप निश्चयमोक्षमार्ग है, वह उपादेय है ||७८॥ ___आगे मिथ्यात्व परिणतिसे यह जीव तत्त्वको यथार्थ नहीं जानता, विपरीत जानता है, ऐसा कहते हैं-जीवः] यह जीव [मिथ्यात्वेन परिणतः] अतत्त्वश्रद्धानरूप परिणत हुआ, [तत्त्वं] आत्माको आदि लेकर तत्त्वोंके स्वरूपको [विपरीतं] अन्यका अन्य [मनुते] श्रद्धान करता है, यथार्थ नहीं जानता । वस्तुका स्वरूप तो जैसा है वैसा ही है तो भी यह मिथ्यात्वी जीव वस्तुके स्वरूपको विपरीत मानता है, अपना जो शुद्ध ज्ञानादि सहित स्वरूप है, उसको मिथ्यात्व रागादिरूप जानता है । उससे क्या करता है ? [कर्मविनिर्मितान् भावान्] कर्मोंकर रचे गये जो शरीरादि परभाव हैं [तान्] उनको [आत्मानं] अपने [भणति] कहता है, अर्थात् भेदविज्ञानके अभावसे गोरा, श्याम, स्थूल, कृश इत्यादि कर्मजनित देहके स्वरूपको अपना जानता है, इसीसे संसारमें भ्रमण करता है ।। भावार्थ-यहाँपर कर्मोंसे उपार्जन किये भावोंसे भिन्न जो शुद्ध आत्मा है, उससे जिस समय रागादि दूर होते हैं, उस समय उपादेय हैं, क्योंकि तभी शुद्ध आत्माका ज्ञान होता है ॥७९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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