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________________ ७८ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० १, दोहा ८०योजयति तं परिणाम सूत्रपञ्चकेन विवृणोति हउँ गोरउ हउँ सामलउ हउँ जि विभिण्णउ वण्णु । हउँ तणु-अंगउँ थुलु हउँ एहउँ मूबउ मण्णु ॥ ८०॥ अहं गौरः अहं श्यामः अहमेव विभिन्नः वर्णः । अहं तन्वङ्गः स्थूलः अहं एतं मूढं मन्यस्व ॥ ८०॥ अहं गौरो गौरवर्णः, अहं श्यामः श्यामवर्णः, अहमेव मिनो नानावर्णः मिश्रवर्णः । क । वर्णविषये रूपविषये । पुनश्च कथंभूतोऽहम् । तन्वङ्गः कृशाङ्गः । पुनश्च कथंभूतोऽहम् । स्थूलः स्थूलशरीरः । इत्थंभूतं मूढात्मानं मन्यस्व । एवं पूर्वोक्तमिथ्यापरिणामपरिणतं जीवं मूढात्मानं जानीहीति । अयमत्र भावार्थः । निश्चयनयेनात्मनो भिन्नान् कर्मजनितान् गौरस्थूलादिभावान् सर्वथा हेयभूतानपि सर्वप्रकारोपादेयभूते वीतरागनित्यानन्दैकस्वभावे शुद्धजीवे यो योजयति स विषयकपायाधीनतया स्वशुद्धात्मानुभूतेश्च्युतः सन् मूढात्मा भवतीति ।। ८० ॥ अथ हउँ वरु भणु वइसु हउँ हउँ खत्तिउ हउँ सेसु । पुरिसु णउँसउ इत्थि हउँ मण्णइ मूदु विसेसु ॥ ८१ ।। अहं वरः ब्राह्मणः वैश्यः अहं अहं क्षत्रियः अहं शेषः ।। पुरुषः नपुंसकः स्त्री अहं मन्यते मूढः विशेषम् ॥ ८१ ॥ हउँ परभणु वासु हउँ हउँ खत्तिउ हउँ सेसु अहं वरो विशिष्टो ब्राह्मणः अहं वैश्यो वणिर् अहं क्षत्रियोऽहं शेषः शूद्रादिः । पुनश्च कथंभूतः । पुरिसु णउंसउ इथि हउं इसके बाद उन पूर्वकथित कर्मजनित भावोंको जिस मिथ्यात्व परिणामसे बहिरात्मा अपने मानता है, और वे अपने हैं नहीं, ऐसे परिणामोंको पाँच दोहा-सूत्रोंमें कहते हैं-[अहं] मैं [गौरः] गोरा हूँ, [अहं] मैं [श्यामः] काला हूँ, [अहमेव] मैं ही [विभिन्नः वर्णः] अनेक वर्णवाला हूँ, [अहं] मैं [तन्वंगः] कृश (पतले) शरीरवाला हूँ, [अहं] मैं [स्थूल:] मोटा हूँ [एतं] इस प्रकार मिथ्यात्व परिणामकर परिणत मिथ्यादृष्टि जीवको तू [मूढं] मूढ [मन्यस्व] मान ॥ भावार्थनिश्चयनयसे आत्मासे भिन्न जो कर्मजनित गौर स्थूलादि भाव हैं, वे सर्वथा त्याज्य हैं, और सर्वप्रकार आराधने योग्य वीतराग नित्यानंद स्वभाव जो शुद्धजीव है, वह इनसे भिन्न है, तो भी जो पुरुष विषय कषायोंके आधीन होकर शरीरके भावोंको अपने जानता है, वह अपनी शुद्धात्मानुभूतिसे रहित हुआ मूढात्मा है |८०॥ __ आगे फिर भी मिथ्यादृष्टिके लक्षण कहते हैं-[मूढः] मिथ्यादृष्टि अपनेको [विशेष मनुते] ऐसा विशेष मानता है, कि [अहं] मैं [वरः ब्राह्मणः] सबमें श्रेष्ठ ब्राह्मण हूँ, [अहं] मैं [वैश्यः] वणिक् हूँ, [अहं] मैं [क्षत्रियः] क्षत्री हूँ, [अहं] मैं [शेषः] इनके सिवाय शूद्र हूँ, [अहं] मैं [पुरुषः नपुंसकः स्त्री] पुरुष हूँ, नपुंसक हूँ, और स्त्री हूँ, । इस प्रकार शरीरके भावोंको मूर्ख अपने मानता है । सो ये सब शरीरके हैं, आत्माके नहीं हैं ।। भावार्थ-निश्चयनयसे ब्राह्मणादि भेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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