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________________ योगीन्दुदेवविरचितः [ अ० १, दोहा ७८कर्मभिर्द्रव्यक्षेत्रकालभवभावरूपं पञ्चप्रकारं संसारं परिभ्रमतीति । तथा चोक्तं मोक्षप्राभृते निश्चयमिथ्यादृष्टिलक्षणम् -" जो पुणु परदव्वरओ मिच्छारट्ठी हवेइ सो साहू । मिच्छत्तपरिणदो उण बज्झदि दुट्ठट्ठकम्मेहिं ॥ " पुनश्वोक्तं तैरेव – “ जे पज्जएसु णिरदा जीवा परसमइग ति fifteट्ठा | आदसहावम्मि ठिदा ते सगसमया मुणेयव्वा ।। " अत्र स्वसंवित्तिरूपाद्वीतरागसम्यक्त्वात् प्रतिपक्षभूतं मिथ्यात्वं हेयमिति भावार्थः ॥ ७७ ॥ अथ मिथ्यात्वोपार्जितकर्मशक्तिं कथयति ७६ कम्म दि-घणचिकणइँ गरुवइँ वज्ज- समाइँ । णाण - विक्खणु जीवडउ उप्पहि पाडहि ताइँ ॥ ७८ ॥ कर्माणि दृढघनचिक्कणानि गुरुकाणि वज्रसमानि । ज्ञानविचक्षणं जीवं उत्पथे पातयन्ति तानि ॥ ७८ ॥ कम्म दिढघणचिकणइं गरुवई वज्जसमाइं कर्माणि भवन्ति । किंविशिष्टानि । दृढानि बलिष्ठानि धनानि निविडानि चिक्कणान्मपनेतुमशक्यानि विनाशयितुमशक्यानि गुरुकाणि महान्ति वज्रसमान्यभेद्यानि च। इत्थंभूतानि कर्माणि किं कुर्वन्ति । णाणवियक्खणु जीवडउ उप्पहि ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है कि जहाँ न उपजा हो और मरण न किया हो, ऐसा कोई काल नहीं है कि जिसमें इसने जन्म मरण न किये हों, ऐसा कोई भव नहीं जो इसने पाया न हो, और ऐसे कोई अशुद्ध भाव नहीं हैं जो इसके न हुए हों । इस तरह अनंत परावर्तन इसने किये हैं । ऐसा ही कथन मोक्षपाहुडमें निश्चय मिथ्यादृष्टिके लक्षणमें श्रीकुंदकुंदाचार्यने कहा है - " जो पुण" इत्यादि । इसका अर्थ यह है, कि जो अज्ञानी जीव द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्मरूप परद्रव्यमें लीन हो रहे हैं, वे साधुके व्रत धारण करने पर भी मिथ्यादृष्टि ही हैं, सम्यग्दृष्टि नहीं और मिथ्यात्वकर परिणमते दुःख देनेवाले आठ कर्मोंको बाँधते हैं । फिर भी आचार्यने ही मोक्षपाहुडमें कहा है- " जे पज्जयेसु " इत्यादि । उसका अर्थ यह है, कि जो नर नारकादि पर्यायोंमें मग्न हो रहे हैं, वे जीव परपर्यायमें रत मिथ्यादृष्टि हैं, ऐसा भगवानने कहा है, और जो उपयोग लक्षणरूप निजभावमें तिष्ठ रहे हैं वे स्वसमयरूप सम्यग्दृष्टि हैं, ऐसा जानो । सारांश यह है, कि जो परपर्यायमें रत हैं, वे तो परसमय ( मिथ्यादृष्टि) है, और जो आत्मस्वभावमें लगे हुए हैं, वे स्वसमय (सम्यग्दृष्टि) हैं, मिथ्यादृष्टि नहीं हैं । यहाँ पर आत्मज्ञानरूपी वीतराग सम्यक्त्वसे पराङ्मुख जो मिथ्यात्व है, वह त्यागने योग्य है ॥७७॥ आगे मिथ्यात्वकर अनेक प्रकार उपार्जन किये कर्मोंसे यह जीव संसार-वनमें भ्रमता है, उस कर्मशक्तिको कहते हैं -[ तानि कर्माणि ] वे ज्ञानावरणादि कर्म [ ज्ञानविचक्षणं ] ज्ञानादि गुणसे चतुर [जीवं ] इस जीवकों [ उत्पथे ] खोटे मार्गमें [ पातयंति ] पटकते ( डालते ) हैं । कैसे हैं वे कर्म ? [ दृढधनचिक्कणानि ] बलवान हैं, बहुत हैं, विनाश करनेको अशक्य हैं, इसलिये चिकने हैं, [गुरुकाणि] भारी हैं, [ वज्रसमानि ] और वज्रके समान अभेद्य हैं || भावार्थ - यह जीव एक 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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