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- दोहा ७७ ]
परमात्मप्रकाशः
वीतरागसम्यग्दृष्टिः किल कर्मणा शीघ्रं मुच्यते तेनैव कारणेन वीतरागचारित्रानुकूलं शुद्धात्मानुभूत्यविनाभूतं वीतरागसम्यक्त्वमेव भावनीयमित्यभिप्रायः । तथा चोक्तं श्रीकुन्दकुन्दाचार्यैमोक्षप्राभृते निश्चयसम्यक्वलक्षणम्- -“ सदव्वरओ सवणो सम्मादिट्ठी हवेइ णियमेण । सम्मपरिणदो उण खवेइ दुट्ठट्ठकम्माई || " || ७६ ॥
अत ऊर्ध्वं मिथ्यादृष्टिलक्षणकथनमुख्यत्वेन सूत्राष्टकं कथ्यते तद्यथापज्जय-रत्तउ जीवडउ मिच्छादिट्ठि हवेह |
बंध बहु-विह-कम्मडा जे संसारु भमेह ॥ ७७ ॥ पर्यायरक्तो जीवः मिथ्यादृष्टिः भवति ।
बात बहुविधकर्माणि येन संसारं भ्रमति ॥ ७७ ॥
पज्जयरत जीवडउ मिच्छादिट्ठि हवेइ पर्यायरक्तो जीवो मिध्यादृष्टिर्भवति परमात्मानुभूतिरुचिप्रतिपक्षभूताभिनिवेशरूपा व्यावहारिकमूढत्र्यादिपञ्चविंशतिमलान्तर्भाविनी मिथ्या वितथा व्यलीका च सा दृष्टिरभिप्रायो रुचिः प्रत्ययः श्रद्धानं यस्य स भवति मिथ्यादृष्टिः । स च किंविशिष्टः । नरनारकादिविभावपर्यायरतः । तस्य मिथ्यापरिणामस्य फलं कथ्यते । बंधइ बहुविहकम्मडा जें संसारु भमेह बध्नाति बहुविधकर्माणि यैः संसारं भ्रमति, येन मिथ्यात्वपरिणामेन शुद्धात्मोपलब्धेः प्रतिपक्षभूतानि बहुविधकर्माणि बध्नाति तैथ यहाँ जिस हेतु वीतराग सम्यग्दृष्टि होनेसे यह जीव कर्मोंसे छूटकर सिद्ध हो जाता है, इसी कारण वीतराग चारित्रके अनुकूल जो शुद्धात्मानुभूतिरूप वीतराग सम्यक्त्व है, वही ध्यावने योग्य हैं, ऐसा अभिप्राय हुआ। ऐसा ही कथन श्रीकुंदकुंदाचार्यने मोक्षपाहुड ग्रंथमें निश्चयसम्यक्त्वके लक्षणमें किया है “सद्दव्वरओ' इत्यादि - उसका अर्थ यह है कि, आत्मस्वरूपमें मग्न हुआ जो यति वह निश्चयकर सम्यग्दृष्टि होता है, फिर वह सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्वरूप परिणमता हुआ दुष्ट आठ कर्मोंको क्षय करता है ||७६ ||
इसके बाद मिध्यादृष्टिके लक्षणके कथनकी मुख्यतासे आठ दोहे कहते हैं - [ पर्यायरक्तः जीवः ] शरीर आदि पर्यायमें लीन हुआ जो अज्ञानी जीव है वह [ मिथ्यादृष्टिः ] मिथ्यादृष्टि [ भवति ] होता है, और फिर वह [ बहुविधकर्माणि ] अनेक प्रकारके कर्मोंको [ बध्नाति ] बाँध है, [ येन ] जिनसे कि [ संसारं] संसारमें [ भ्रमति ] भ्रमण करता है । भावार्थ- परमात्माकी अनुभूतिरूप श्रद्धासे विमुख जो आठ मद, आठ मल, छह अनायतन, तीन मूढता, इन पच्चीस दोषोंकर सहित अतत्त्व श्रद्धानरूप मिथ्यात्व परिणाम जिसके हैं, वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है । वह मिध्यादृष्टि नर नारकादि विभाव-पर्यायोंमें लीन रहता है । उस मिथ्यात्व परिणामसे शुद्धात्माके अनुभवसे पराङ्मुख अनेक तरहके कर्मोंको बाँधता है, जिनसे कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावरूपी पाँच प्रकारके संसारमें भटकता है । ऐसा कोई शरीर नहीं, जो इसने न धारण किया हो,
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