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________________ योगौन्दुदेवविरचितः [अ० १, दोहा ७३___ अथ देहे छिद्यमानेऽपि भिद्यमानेऽपि शुद्धात्मानं भावयेत्यभिमायं मनसि धृता सूत्रं प्रतिपादयति छिज्जउ भिज्नउ जाउ खउ जोइय एह सरीरु । अप्पा भावहिणिम्मलउ जिं पावहि भव-तीरु ॥ ७२ ॥ छिद्यतां भिद्यतां यातु क्षयं योगिन् इदं शरीरम् । आत्मानं भावय निर्मलं येन प्राप्नोषि भवतीरम् ॥ ७२ ॥ छिज्जउ भिज्जउ जाउ खउ जोइय एह सरीरु छिद्यतां वा द्विधा भवतु भिधतां वा छिद्रीभवतु क्षयं वा यातु हे योगिन् इदं शरीरं तथापि वं किं कुरु। अप्पा भावहि णिम्मलउ आत्मानं वीतरागचिदानन्दैकस्वभावं भावय। किविशिष्टम् । निर्मलं भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मरहितम्। येन किं भवति। जि पावहि भवतीरु येन परमात्मध्यानेन पामोषि लभसे खं हे जीव । किम् । भवतीरं संसारसागरावसानमिति । अत्र योऽसौ देहस्य छेदनादिव्यापारेऽपि रागद्वेषादिक्षोभमकुर्वन् सन् शुद्धात्मानं भावयतीति संपादनादर्वाङ्मोक्षं स गच्छतीति भावार्थः ॥ ७२ ॥ अथ कर्मकृतभावानचेतनं द्रव्यं च निश्चयनयेन जीवाद्भिन्नं जानीहीति कथयति कम्महँ केरा भावडा अण्णु अचेयणु दन्छ । जीव-सहावहँ भिण्णु जिय णियमि बुज्झहि सव्वु ॥ ७३ ।। कर्मणः संबन्धिनः भावाः अन्यत् अचेतनं द्रव्यम् । जीवस्वभावात् भिन्न जीव नियमेन बुध्यस्व सर्वम् ॥ ७३ ॥ कम्महं केरा भावडा अण्णु अचेयणु दव्वु कर्मसंबन्धिनो रागादिभावा अन्यत् चाचेतनं देहादिद्रव्यं एतत्पूर्वोक्तं अप्पसहावहं भिण्णु जिय विशुद्धज्ञानदर्शनस्वरूपादात्मशरीरं] यह शरीर [छिद्यतां] छिद जावे, दो टुकड़े हो जावे, [भिधतां] अथवा भिद जावे, छेदसहित हो जावे, [क्षयं यातु] नाशको प्राप्त होवे, तो भी तू भय मत कर, मनमें खेद मत ला, [निर्मलं आत्मानं] अपने निर्मल आत्माका ही [भावय] ध्यान कर, अर्थात् वीतराग चिदानंद शुद्धस्वभाव तथा भावकर्म द्रव्यकर्म नोकर्मसे रहित अपने आत्माका चिंतवन कर, [येन] जिस परमात्माके ध्यानसे तू [भवतीरं] भवसागरका पार [प्राप्नोषि] पायेगा ॥ भावार्थ-जो देहके छेदनादि कार्य होते भी राग द्वेषादि विकल्प नहीं करता, निर्विकल्पभावको प्राप्त हुआ शुद्ध आत्माको ध्याता है, वह थोडे ही समयमें मोक्षको पाता है ॥७२॥ ___ आगे ऐसा कहते हैं, जो कर्मजनित रागादिभाव और शरीरादि परवस्तु हैं, वे चेतन द्रव्य न होनेसे निश्चयनयकर जीवसे भिन्न हैं, ऐसा जानो-[जीव] हे जीव, [कर्मणः सम्बन्धिनः भावाः] कर्मजन्य रागादिक भाव और [अन्यत्] दूसरा [अचेतनं द्रव्यं] शरीरादिक अचेतन पदार्थ [सर्वं] इन सबको [नियमेन] निश्चयसे [जीवस्वभावात्] जीवके स्वभावसे [भिन्नं] जुदे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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