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________________ -दोहा ७१] परमात्मप्रकाशः सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाभेदरत्नत्रयभावनाप्रतिकूलै रागद्वेषमोहैर्यान्युपार्जितानि कर्माणि तदुदयसंपन्ना जन्ममरणादिधर्मा यद्यपि व्यवहारनयेन जीवस्य सन्ति तथापि निश्चयनयेन देहस्येति ज्ञातव्यम् । अत्र देहादिममत्वरूपविकल्पजालं त्यक्त्वा यदा वीतरागसदानन्दैकरूपेण सर्वप्रकारोपादेयभूतेन परिणमति तदा स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति भावार्थः ॥ ७० ॥ __ अथ देहस्य जरामरणं दृष्ट्वा मा भयं जीव का रिति निरूपयति देहह पेक्खिवि जर-मरणु मा भउ जीव करेहि । जो अजरामरु बंभु पर सो अप्पाणु मुणेहि ।। ७१ ॥ देहस्य दृष्ट्वा जरामरणं मा भयं जीव कार्षीः । यः अजरामरः ब्रह्मा परः तं आत्मानं मन्यस्व ॥ ७१ ॥ देहहं पेक्खिवि जरमरणु मा भउ जीव करेहि देहसंबन्धि दृष्ट्वा । किम् । जरामरणम् । मा भयं कार्षीः हे जीव । अयमों यद्यपि व्यवहारेण जीवस्य जरामरणं तथापि शुद्धनिश्चयेन देहस्य न च जीवस्येति मत्वा भयं मा कार्षीः। तर्हि किं कुरु । जो अजरामरु बंभु परु सो अप्पाणु मुणेहि यः कश्चिदजरामरो जरामरणरहितब्रह्मशब्दवाच्यः शुद्धात्मा । कथंभूतः । परः सर्वोत्कृष्टस्तमित्थंभूतं परं ब्रह्मस्वभावमात्मानं जानीहि पश्चेन्द्रियविषयप्रभृतिसमस्तविकल्पजालं मुक्त्वा परमसमाधौ स्थिखा तमेव भावयेति भावार्थः ।। ७१ ॥ आचरणरूप अभेदरत्नत्रयकी भावनासे विमुख जो राग, द्वेष, मोह उनकर उपार्जे जो कर्म उनसे उपजे जन्ममरणादि विकार हैं, वे सब यद्यपि व्यवहारनयसे जीवके हैं, तो भी निश्चयनयकर जीवके नहीं हैं, देहसम्बन्धी है ऐसा जानना चाहिये । यहाँपर देहादिकमें ममतारूप विकल्पजालको छोडकर जिस समय यह जीव वीतराग सदा आनंदरूप सब तरह उपादेयरूप निज भावोंकर परिणमता है, तब अपना यह शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसा अभिप्राय जानो ॥७०॥ आगे ऐसा कहते हैं कि हे जीव, तू जरा मरण देहके जानकर डर मत कर-[जीव] हे आत्माराम, तू [देहस्य] देहके [जरामरणं] बुढापा मरनेको [दृष्ट्वा ] देखकर [भयं] डर [मा कार्षीः] मत कर; [यः] जो [अजरामरः] अजर अमर [परः ब्रह्मा] परमब्रह्म शुद्ध स्वभाव है, [तं] उसको तू [आत्मानं] आत्मा [मन्यस्व] जान ॥ भावार्थ-यद्यपि व्यवहारनयसे जीवके जरा मरण हैं, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर जीवके नहीं हैं, देहके हैं, ऐसा जानकर भय मत कर; तू अपने चित्तमें ऐसा समझ कि जो कोई जरा मरण रहित अखंड परब्रह्म हैं, वैसा ही मेरा स्वरूप है, शुद्धात्मा सबसे उत्कृष्ट है, ऐसा तू अपना स्वभाव जान । पाँच इन्द्रियोंके विषयको और समस्त विकल्पजालोंको छोडकर परमसमाधिमें स्थिर होकर निज आत्माका ही ध्यान कर, यह तात्पर्य हुआ ॥७१॥ आगे यदि देह छिद जावे, भिद जावे, क्षय हो जावे, तो भी तू भय मत कर, केवल शुद्ध आत्माका ध्यान कर, ऐसा अभिप्राय मनमें रखकर सूत्र कहते हैं-[योगिन्] हे योगी, [इदं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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