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________________ योगीन्दुदेवविरचितः [ अ० १, दोहा ७०जीवस्य न केवलमेतन्नास्ति संज्ञापि नास्तीति । अत्र संज्ञाशब्देनाहारादिसंज्ञा नामसंज्ञा वा ग्राह्या । तथाहि । वीतरागनिर्विकल्पसमाधेर्विपरीतैः क्रोधमानमायालोभप्रभृतिविभावपरिणामर्यान्युपार्जितानि कर्माणि तदुदयजनितान्युद्भवादीनि शुद्धनिश्वयेन न सन्ति जीवस्य । ते कस्मान्न सन्ति । केवलज्ञानाद्यनन्तगुणैः कृत्वा निश्चयेनानादिसंतानागतोद्भवादिभ्यो भिन्नतादिति । अत्र उपादेयरूपानन्तसुखाविना भूतशुद्धजीवात्तत्सकाशाद्यानि भिन्नान्युद्भवादीनि तानि यानीति तात्पर्यार्थः ॥ ६९ ॥ यद्युद्भवादीनि स्वरूपाणि शुद्धनिश्चयेन जीवस्य न सन्ति तर्हि कस्य सन्तीति प्रश्ने देहस्य भवन्तीति प्रतिपादयति देहहँ उब्भउ जर-मरणु देहहँ वष्णु विचित्तु । देहहँ रोय वियाणि तुहुँ देहहँ लिंगु विश्चित्तु ॥ ७० ॥ देहस्य उद्भवः जरामरणं देहस्य वर्णः विचित्रः । देहस्य रोगान् विजानीहि त्वं देहस्य लिङ्गं विचित्रम् ॥ ७० ॥ 1 देहस्य भवति । किं किम् । उब्भउ उत्पत्तिः जरामरणं च वर्णो विचित्रः । वर्णशब्देनात्र पूर्वसूत्रे च श्वेतादि ब्राह्मणादि वा गृह्यते । तस्यैव देहस्य रोगान् विजानीहीति, लिङ्गमपि लिङ्गशब्देनात्र पूर्वसूत्रे च स्त्रीपुंनपुंसकलिङ्गं यतिलिङ्गं वा ग्राह्यं चित्तं मनश्वेति । तद्यथा— शुद्धात्म[ लिंगान्यपि ] चिह्न [ वर्णा: ] वर्ण [ एका संज्ञा अपि ] आहारादिक एक भी संज्ञा वा नाम नहीं है, ऐसा [ त्वं ] तू [नियमेन ] निश्चयकर [विजानीहि ] जान || भावार्थ - वीतराग निर्विकल्प - समाधिसे विपरीत जो क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विभावपरिणाम उनकर उपार्जन किये कर्मोंके उदयसे उत्पन्न हुए जन्म मरण आदि अनेक विकार हैं, वे शुद्धनिश्चयनयकर जीवके नहीं हैं, क्योंकि निश्चयनयकर आत्मा केवलज्ञानादि अनंत गुणोंकर पूर्ण है, और अनादि- संतानसे प्राप्त जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, भय, स्त्री, पुरुष, नपुंसकलिंग, सफेद, काला वगैर वर्ण, आहार, भय, मैथुन, परिग्रहरूप संज्ञा इन सबोंसे भिन्न है । यहाँ उपादेयरूप अनंतसुखका धाम जो शुद्ध जीव उससे भिन्न जन्मादिक हैं, वे सब त्याज्य हैं, एक आत्मा ही उपादेय हैं, यह तात्पर्य जानना ॥ ६९ ॥ ७० आगे जो शुद्धनिश्चयनयकर जन्म-मरणादि जीवके नहीं हैं, तो किसके हैं ? ऐसा शिष्यके प्रश्न करने पर समाधान यह है, कि ये सब देहके हैं ऐसा कथन करते हैं - श्रीगुरु कहते हैं, कि हे शिष्य, [त्वं] तू [देहस्य] देहके [उद्भवः] जन्म [जरामरणं] जरा मरण होते हैं, अर्थात् नया शरीर धरना, विद्यमान शरीर छोडना, वृद्ध अवस्था होना, ये सब देहके जानो, [ देहस्य ] देहके [विचित्रः वर्णः ] अनेक तरहके सफेद, श्याम, हरे, पीले, लालरूप पाँच वर्ण, अथवा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, ये चार वर्ण, [ देहस्य ] देहके [ रोगान् ] वात, पित्त, कफ आदि अनेक रोग, [देहस्य] देहके [विचित्रं लिंगं ] अनेक प्रकारके स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, नपुंसकलिंगरूप चिह्नको अथवा यतिके लिंगको और द्रव्यमनको [विजानीहि ] जान ॥ भावार्थ- शुद्धात्माका सच्चा श्रद्धान ज्ञान For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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