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________________ -दोहा ७४ ] परमात्मप्रकाशः खभावानिश्चयेन भिनं पृथग्भूतं हे जीव णियमिं बुज्झहि सव्वु नियमेन निश्चयेन बुध्यस्व जानीहि सर्व समस्तमिति । अत्र मिथ्यावाविरतिप्रमादकषाययोगनिवृत्तिपरिणामकाले शुद्धात्मोपादेय इति तात्पर्यार्थः ।। ७३॥ अथ ज्ञानमयपरमात्मनः सकाशादन्यत्परद्रव्यं मुक्खा शुद्धात्मानं भावयेति निरूपयति अप्पा मेल्लिवि णाणमउ अण्णु परायउ भाउ । सो छंडेविणु जीव तुहँ भावहि अप्प-सहाउ ।। ७४ ॥ आत्मानं मुक्त्वा ज्ञानमयं अन्यः परः भावः ।। तं त्यक्त्वा जीव त्वं भावय आत्मस्वभावम् ॥ ७४ ॥ अप्पा मिल्लिविणाणमउ अण्णु परायउ भाउ आत्मानं मुक्ता । किंविशिष्टम् । ज्ञानमयं केवलज्ञानान्तर्भूतानन्तगुणराशिं निश्चयात् अन्यो भिन्नोऽभ्यन्तरे मिथ्यावरागादिबहिविषये देहादिपरभावः सो छंडेविणु जीव तुहुँ भावहि अप्पसहाउ तं पूर्वोक्तं शुद्धात्मनो विलक्षणं परभावं छंडयित्वा त्यक्त्वा हे जीव खं भावय । कम् । स्वशुद्धात्मस्वभावम् । किविशिष्टम् । केवलज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयव्यक्तिरूपकार्यसमयसारसाधकमभेदरत्नत्रयात्मककारणसमयसारपरिणतमिति । अत्र तमेवोपादेयं जानीहीत्यभिप्रायः ॥ ७४॥ अथ निश्चयेनाष्टकर्मसर्वदोषरहितं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रसहितमात्मानं जानीहीति कथयति__अहँ कम्महँ बाहिरउ सयलहँ दोसहँ चत्तु । दसण-णाण-चरित्तमउ अप्पा भावि णिरुत्तु ।। ७५ ॥ [बुध्यस्व] जानो, अर्थात् ये सब कर्मके उदयसे उत्पन्न हुए हैं, आत्माका स्वभाव निर्मल ज्ञान दर्शनमयी है ।। भावार्थ-जो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योगोंकी निवृत्तिरूप परिणाम हैं, उस समय शुद्ध आत्मा ही उपादेय हैं ॥७३॥ ____ आगे ज्ञानमयी परमात्मासे भिन्न परद्रव्यको छोडकर तू शुद्धात्माका ध्यान कर, ऐसा कहते हैं-जीव] हे जीव [त्वं] तू [ज्ञानमयं] ज्ञानमयी [आत्मानं] आत्माको [मुक्त्वा ] छोडकर [अन्यः परः भावः] अन्य जो दूसरे भाव हैं, [तं] उनको [छंडयित्वा] छोडकर [आत्मस्वभावं] अपने शुद्धात्मस्वभावको [भावय] चितवन कर ॥ भावार्थ-केवलज्ञानादि अनंतगुणोंकी राशि आत्मासे जुदे जो मिथ्यात्व रागादि अंदरके भाव तथा देहादि बाहिरके परभाव ऐसे जो शुद्धात्मासे विलक्षण परभाव हैं, उनको छोडकर केवलज्ञानादि अनंतचतुष्टयरूप कार्यसमयसारका साधक जो अभेदरत्नत्रयरूप कारणसमयसार है, उस रूप परिणत हुए अपने शुद्धात्मस्वभावको चिंतवन कर और उसीको उपादेय समझ ।।७४॥ आगे निश्चयनयकर आठ कर्म और सब दोषोंसे रहित सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमयी आत्माको तू जान, ऐसा कहते हैं-अष्टभ्यः कर्मभ्यः] शुद्धनिश्चयनयकर ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंसे [बाह्यं] रहित [सकलैः दोषैः] मिथ्यात्व रागादि सब विकारोंसे [त्यक्तं] रहित [दर्शनज्ञानचारित्रमयं] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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