SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 228
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -दोहा ६७ ] नान्तवीर्यत्वात् शुभाशुभकर्मरूपनिगलद्वयरहितोऽपि व्यवहारेण अनादिसंसारे स्वशुद्धात्मभावनाप्रतिबन्धकेन मनोवचनकायत्रयेणोपार्जितेन कर्मणा निर्मितेन पुण्यपापनिगलद्वयेन दृढतरं बद्धः सन् पङ्गुवद्धत्वा स्वयं न याति न चागच्छति स एवात्मा परमात्मोपलम्भप्रतिपक्षभूतेन विधिशब्दवाच्येन कर्मणा भुवनत्रये नीयते तथैवानीयते चेति । अत्र वीतरागसदानन्दैकरूपात्सर्वप्रकारोपादेयभूतात्परमात्मनो यद्भिनं शुभाशुभकर्मद्वयं तद्धेयमिति भावार्थः ॥ ६६ ॥ इति कर्मशक्तिस्वरूपकथनस्थले सूत्राष्टकं गतम् । परमात्मप्रकाशः अत ऊर्ध्वं भेदाभेदभावनामुख्यतया पृथक् पृथक् स्वतन्त्रत्रनवकं कथयतिअप्पा अप्पु जि परु जि परु अप्पा परु जिण होइ । परु जि कयाइ वि अप्पु णवि णियमे पभणहिं जोइ ॥ ६७ ॥ Jain Education International आत्मा आत्मा एव परः एव परः आत्मा परः एव न भवति । पर एव कदाचिदपि आत्मा नैव नियमेन प्रभणन्ति योगिनः ॥ ६७ ॥ अप्पा अप्पु जि परु जि परु अप्पा परु जि ण होइ आत्मात्मैव पर एव परः आत्मा पर एव न भवति । परु जि कयाइ वि अप्पु णवि नियमें पभणहिं जोड़ पर एव [भुवनत्रयस्य अपि मध्ये ] तीनों लोकमें इस जीवको [विधिः ] कर्म ही [नयति ] ले जाता है, [विधिः] कर्म ही [आनयति ] ले आता है || भावार्थ - यह आत्मा शुद्ध निश्चयनयसे अनंतवीर्य (बल) का धारण करनेवाला होनेसे शुभ अशुभ कर्मरूप बंधनसे रहित है, तो भी व्यवहारनयसे इस अनादि संसारमें निज शुद्धात्माकी भावनासे विमुख जो मन वचन काय इन तीनोंसे उपार्जे कर्मोंकर उत्पन्न हुए पुण्य-पापरूप बंधनोंकर अच्छी तरह बँधा हुआ पंगुके समान आप न कहीं ता है न कहीं आता है । जैसे बंदीवान आपसे न कहीं जाता है और न कहीं आता है, चौकीदारोंकर ले जाया जाता है, और आता है, आप तो पंगुके समान है । वही आत्मा परमात्माकी प्राप्ति रोकनेवाले चतुर्गतिरूप संसारके कारणस्वरूप कर्मोंकर तीन जगतमें गमन - आगमन करता है, एक गतिसे दूसरी गतिमें जाता है । यहाँ सारांश यह हैं, कि वीतराग परम आनंदरूप तथा सब तरह उपादेयरूप परमात्मासे (अपने स्वरूपसे) भिन्न जो शुभ अशुभ कर्म हैं, वे त्यागने योग्य हैं ||६६|| इस प्रकार कर्मकी शक्तिके स्वरूपके कहनेकी मुख्यतासे आठवें स्थलमें आठ दोहे कहे । इससे आगे भेदाभेदरत्नत्रयकी भावनाकी मुख्यतासे जुदे जुदे स्वतन्त्र नौ सूत्र कहते हैं - [ आत्मा ] निजवस्तु [ आत्मा एव ] आत्मा ही हैं, [ परः ] देहादि पदार्थ [ पर एव] पर ही हैं, [ आत्मा ] आत्मा तो [ परः न एव] परद्रव्य नहीं [ भवति ] होता, [ पर एव] और परद्रव्य ही [ कदाचिदपि ] कभी [ आत्मा नैव] आत्मा नहीं होता, ऐसा [नियमेन ] निश्चयकर [ योगिनः ] योगीश्वर [ प्रभति ] कहते हैं ॥ भावार्थ- शुद्धात्मा तो केवलज्ञानादि स्वभाव है, जडरूप नहीं है, उपाधिरूप नहीं है, शुद्धात्मस्वरूप ही है । पर जो काम-क्रोधादि पर वस्तु भावकर्म द्रव्यकर्म नोकर्म हैं, वे पर ही हैं, अपने नहीं हैं । जो यह आत्मा संसार - अवस्थामें यद्यपि अशुद्धनिश्चयनयकर काम ६७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy