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योगीन्दुदेवविरचितः
अथ स्थलसंख्याबाचं प्रक्षेपकं कथयति
[ अ० १, दोहा ६६
सो णत्थि त्ति पएसो चउरासीजोणि- लक्ख-मज्झम्मि |
जिण वयणं ण लहंतो जत्थ ण डुलुडुल्लिओ जीवो ॥ ६५१ ॥ स नास्ति इति प्रदेशः चतुरशीतियोनिलक्षमध्ये ।
जिनवचनं न लभमानः यत्र न भ्रमितः जीवः ॥ ६५१ ॥
सो णत्थि त्ति पसोस प्रदेशो नास्त्यत्र जगति । स किम् । चउरासीजोणिलक्खमज्झम्मि जिणचयणं ण लहंतो जत्थ ण डुलुडुल्लिओ जीवो चतुर्लक्षेषु मध्ये भूत्वा जिनवचनमलभमानो यत्र न भ्रमितो जीव इति । तथाहि । भेदाभेदरत्नत्रयप्रतिपादकं जिनवचनमलभमानः सन्नयं जीवोऽनादिकाले यत्र चतुरशीतियोनिलक्षेषु मध्ये भूत्वा न भ्रमितः सोऽत्र कोऽपि प्रदेशो नास्ति इति । अत्र यदेव भेदाभेदरत्नत्रयप्रतिपादकं जिनवचनमलभमानो भ्रमितो जीवस्तदेवोपादेयात्मसुखप्रतिपादकत्वादुपादेयमिति तात्पर्यार्थः ।। ६५* १ ।
अथात्मा पङ्गुवत् स्वयं न याति न चैति कर्मैव नयत्यानयति चेति कथयतिअप्पा पंगुह अणुहरइ अग्पु ण जाइ ण एइ ।
भुवणत्तयहँ वि मज्झि जिय विहि आणइ विहि णेइ ॥ ६६ ॥
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आत्मा पोः अनुहरति आत्मा न याति न आयाति ।
भुवनत्रयस्य अपि मध्ये जीव विधिः आनयति विधिः नयति ॥ ६६ ॥
अप्पा पंगुह अणुहरइ अप्पु ण जाइ ण एइ आत्मा पङ्गोरनुहरति सदृशो भवति अयमात्मा न याति न चागच्छति । कं । भुवणत्तयहं वि मज्झि जिय विहि आणइ विहि णेइ भुवनत्रयस्यापि मध्ये हे जीव विधिरानयति विधिर्नयतीति । तद्यथा । अयमात्मा शुद्धनिश्चये
आगे दोहा - सूत्रों की स्थल संख्यासे बाहर उक्तं च स्वरूप प्रक्षेपकको कहते हैं - [ अत्र ? ] इस जगतमें [ स ( कः अपि ) ] ऐसा कोई भी [ प्रदेशः नास्ति ] प्रदेश (स्थान) नहीं है, कि [ यत्र ] जिस जगह [ चतुरशीतियोनिलक्षमध्ये ] चौरासी लाख योनियोंमें होकर [ जिनवचनं न लभमानः ] जिन-वचनको नहीं प्राप्त करता हुआ [ जीवः ] यह जीव [न भ्रमितः ] नहीं भटका || भावार्थ - इस जगतमें कोई ऐसा स्थान नहीं रहा, जहाँपर यह जीव निश्चय व्यवहार रत्नत्रयको कहनेवाले जिनवचनको नहीं पाता हुआ अनादि कालसे चौरासी लाख योनियोंमें होकर न घूमा हो, अर्थात् जिनवचनकी प्रतीति न करनेसे सब जगह और सब योनियोंमें भ्रमण किया, जन्ममरण किये । यहाँ यह तात्पर्य है, कि जिनवचनके न पानेसे यह जीव जगतमें भ्रमा, इसलिये जिन-वचन ही आराधने योग्य है ||६५*१||
आगे आत्मा पङ्गु (लंगडे) की तरह आप न तो कहीं जाता है, और न आता है, कर्म ही इसको ले जाते हैं, और ले आते हैं, ऐसा कहते हैं - [ जीव ] हे जीव, [ आत्मा ] यह आत्मा [ पङ्गोः अनुहरति ] पंगुके समान है, [ आत्मा] आप [ न याति ] न कहीं जाता है, [न आयाति ] न आता है
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