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________________ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० १, दोहा ६८कदाचिदप्यात्मा नैव भवति नियमेन निश्चयेन भणन्ति कथयन्ति । के कथयन्ति । परमयोगिन इति । तथाहि । शुद्धात्मा केवलज्ञानादिस्वभावः शुद्धात्मात्मैव परः कामक्रोधादिस्वभावः पर एव पूर्वोक्तः परमात्माभिधानं तदैकस्वस्वभावं त्यक्त्वा कामक्रोधादिरूपो न भवति । कामक्रोधादिरूपः परः कापि काले शुद्धात्मा न भवतीति परमयोगिनः कथयन्ति । अत्र मोक्षसुखादुपादेयभूतादभिन्नः कामक्रोधादिभ्यो भिन्नो यः शुदात्मा स एवोपादेय इति तात्पर्यार्थः ॥ ६७ ॥ अथ शुद्धनिश्चयेनोत्पत्तिं मरणं बन्धमोक्षौ न करोत्यात्मेति प्रतिपादयति ण वि उप्पज्जइ ण वि मरइ बंधु ण मोक्खु करेइ । जिउ परमत्थे जोइया जिणवरु एउँ भणेइ ।। ६८ ॥ नापि उत्पद्यते नापि म्रियते बन्धं न मोक्षं करोति । जीवः परमार्थेन योगिन् जिनवरः एवं भणति ॥ ६८ ॥ नाप्युत्पद्यते नापि म्रियते बन्धमोक्षं च न करोति । कोऽसौ कर्ता । जीवः । केन परमार्थन हे योगिन् जिनवर एवं ब्रूते कथयति । तथाहि । यद्यप्यात्मा शुद्धात्मानुभूत्यभावे सति शुभाशुभोपयोगाभ्यां परिणम्य जीवितमरणशुभाशुभबन्धान् करोति । शुद्धात्मानुभूतिसद्भावे तु शुद्धोपयोगेन परिणम्य मोक्षं च करोति तथापि शुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेण शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन क्रोधादिरूप हो गया है, तो भी परमभावके ग्राहक शुद्धनिश्चयनयकर अपने ज्ञानादि निजभावको छोडकर काम क्रोधादिरूप नहीं होता, अर्थात् निजभावरूप ही है । ये रागादि विभावपरिणाम उपाधिक हैं, परके संबंधसे हैं, निजभाव नहीं हैं, इसलिये आत्मा कभी इन रागादिरूप नहीं होता, ऐसा योगीश्वर कहते हैं । यहाँ उपादेयरूप मोक्षसुख (अतींद्रिय सुख) से तन्मय और कामक्रोधादिकसे भिन्न जो शुद्धात्मा है, वही उपादेय है, ऐसा अभिप्राय है ॥६७॥ आगे शुद्धनिश्चयनयकर आत्मा जन्म, मरण, बंध और मोक्षको नहीं करता है, जैसा है वैसा ही है, ऐसा निरूपण करते हैं-योगिन्] हे योगीश्वर, [परमार्थेन] निश्चयनयकर विचारा जावे, तो [जीवः] यह जीव [नापि उत्पद्यते] न तो उत्पन्न होता है, [नापि म्रियते] न मरता है [च] और [न बंधं मोक्षं] न बंध मोक्षको [करोति] करता है, अर्थात् शुद्धनिश्चयनयसे बंध-मोक्षसे रहित है [एवं] ऐसा [जिनवरः] जिनेन्द्रदेव [भणति] कहते हैं । भावार्थ-यद्यपि यह आत्मा शुद्धात्मानुभूतिके अभावके होनेपर शुभ अशुभ उपयोगोंसे परिणमन करके जीवन, मरण, शुभ, अशुभ कर्मबंधको करता है, और शुद्धात्मानुभूतिके प्रगट होनेपर शुद्धोपयोगसे. परिणत होकर मोक्षको करता है, तो भी शुद्ध पारिणामिक परमभाव ग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिकनयकर न बंधका कर्ता है, और न मोक्षका कर्ता है । ऐसा कथन सुनकर शिष्यने प्रश्न किया कि हे प्रभो, शुद्धद्रव्यार्थिक स्वरूप शुद्धनिश्चय नयकर मोक्षका भी कर्ता नहीं है, तो ऐसा समझना चाहिये, कि शुद्धनयकर मोक्ष ही नहीं है, जब मोक्ष नहीं, तब मोक्षके लिये यत्न करना वृथा है । उसका उत्तर कहते हैं-मोक्ष है, वह बंधपूर्वक है, और बंध है, वह शुद्धनिश्चयनयकर होता ही नहीं, इस कारण बंधके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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