SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६३ दोहा ६३ ] परमात्मप्रकाशः परमाणवो लग्ना भवन्ति । जीवपएसिहिं मोहियहं ते जिण कम्म भांति । केषु लग्ना भवन्ति । जीवप्रदेशेषु । केषाम् । मोहितानां जीवानाम् । तान् कर्मस्कन्धान् जिनाः कर्मेति कथयन्ति । तथाहि । शुद्धात्मानुभूतिविलक्षणैर्विषयकषायै रक्तानां स्वसंवित्त्यभावोपार्जितमोहकर्मोदयपरिणतानां च जीवानां कर्मवर्गणायोग्यस्कन्धास्तैलक्षितानां मलपर्यायवदष्टविधज्ञानावरणादिकर्मरूपेण परिणमन्तीत्यर्थः । अत्र य एव विषयकषायकाले कर्मोपार्जनं करोति स एव परमात्मा वीतरागनिर्विकल्पसमाधिकाले साक्षादुपादेयो भवतीति तात्पर्यार्थः ॥ ६२ ॥ इति कर्मस्वरूपकथनमुख्यत्वेन सूत्रचतुष्टयं गतम् ॥ अथापीन्द्रियचित्तसमस्तविभाषचतुर्गतिसंतापाः शुद्धनिश्यनयेन कर्मजनिता इत्यभिप्रायं मनसि धृत्वा सूत्रं कथयन्ति - पंच वि इंदिय अण्णु मणु अण्णु वि सयल - विभाव | जीव कम्म जणिय जिय अण्णु वि चउगइ-ताव ।। ६३ ।। चापि इन्द्रियाणि अन्यत् मनः अन्यदपि सकलविभावः । जीवानां कर्मणा जनिताः जीव अन्यदपि चतुर्गतितापाः ॥ ६३ ॥ पंच वि इंदिय अण्णु बि सयलबि भाव पश्चेन्द्रियाणि अन्यन्मनः अन्यदपि पुनरपि समस्तविभावः । जीवहं कम्मई जणिय जिय अण्णु वि चउगइताव एते जीवानां कर्मणा जनिता हे जीव, न केवलमेते अन्यदपि पुनरपि चतुर्गतिसंतापास्ते कर्मजनिता इति । तद्यथा । ऐसा कहते हैं - [ विषयकषायैः] विषय-कषायोंसे [ रंगितानां ] रागी [ मोहितानां] मोही जीवोंके [जीवप्रदेशेषु ] जीवके प्रदेशोंमें [ ये अणवः ] जो परमाणु [लगंति ] लगते हैं, बँधते हैं, [ तान् ] उन परमाणुओंके स्कंधों (समूहों ) को [जिना: ] जिनेन्द्रदेव [कर्म] कर्म [ भांति ] कहते हैं | भावार्थ- शुद्ध आत्माकी अनुभूतिसे भिन्न जो विषयकषाय उनसे रंगे हुए आत्मज्ञानके अभावसे उपार्जन किये हुए मोहकर्मके उदयकर परिणत हुए, ऐसे रागी द्वेषी मोही संसारी जीवोंके कर्मवर्गणा योग्य जो पुद्गलस्कंध हैं, वे ज्ञानावरणादि आठ प्रकार कर्मरूप होकर परिणमते हैं । जैसे तेलसे शरीर चिकना होता है, और धूलि लगकर मैलरूप होकर परिणमती है, वैसे ही रागी, द्वेषी, मोही जीवोंके विषय कषाय-दशामें पुद्गलवर्गणा कर्मरूप होकर परिणमती है । जो कर्मोंका उपार्जन करते हैं, वही जब वीतराग निर्विकल्पसमाधिके समय कर्मोंका क्षय करते हैं, तब आराधने योग्य हैं, यह तात्पर्य हुआ || ६२|| इस प्रकार कर्मस्वरूपके कथनकी मुख्यतासे चार दोहे कहे । आगे पाँच इंद्रिय, मन, समस्त विभाव और चार गतिके दुःख ये सब शुद्ध निश्चयनयकर कर्मसे उपजे हैं, जीवके नहीं हैं, यह अभिप्राय मनमें रखकर दोहा - सूत्र कहते हैं [ पंचापि ] पाँचों ही [ इंद्रियाणि ] इन्द्रियाँ [ अन्यत् ] भिन्न हैं, [मनः] मन [अपि] और [ सकलविभावः ] रागादि सब विभाव परिणाम [ अन्यत् ] अन्य हैं, [चतुर्गतितापाः अपि] तथा चारों गतियोंके दुःख भी [ अन्यत् ] अन्य हैं, [जीव] हे जीव, ये For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy