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योगीन्दुदेवविरचितः
[ दोहा ६४
अतीन्द्रियात् शुद्धात्मनो यानि विपरीतानि पश्येन्द्रियाणि शुभाशुभसंकल्पविकल्परहितात्मनो विपरीतमनेकसंकल्पविकल्पजालरूपं मनः, ये च शुद्धात्मतस्वानुभूतेर्विलक्षणाः समस्तविभावपर्यायाः, वीतरागपरमानन्दमुत्वामृतमतिकूलाः समस्य चतुर्मतिसंताचाः दुःखदाहावेति सर्वेऽप्येते अशुद्धनिमयनयेन स्वसंवेद्याभाबोपार्जितेन कर्मणा निर्मिता जीवानामिति । अत्र परमात्मद्रव्यात्यतिकूलं यत्पश्येन्द्रियादिसमविकल्पानं तदेयं तद्विपरीतं स्वशुद्धात्मतत्त्वं पश्येन्द्रियविषयाभिलाषादिसमस्तविकल्परहितं परमसमाधिकाले साक्षादुपादेयमिति भाषार्थः ।। ६३ ।
अथ सांसारिकसमस्त सुखदुःखानि शुद्धनिश्वयनयेन जीवानां कर्म जनयतीति निरूपयतिदुक्स वि सुक्खु वि बहु-बिहउ जीवहँ कम्मु जणेइ । अप्पा देवखर मुणइ पर णिच्छउ एउँ भणेइ ॥ ६४ ॥ दुःखमपि सुखमपि बहुविधं जीवानां कर्म जनयति ।
आत्मा पश्यति मनुते परं निश्वयः एवं भणति ॥ ६४ ॥
दुक्खु बिसुक्खु वि बहुबिहउ जीवहं कम्मु जणेइ दुःखमपि सुखमपि । कथंभूतम् । बहुविधं जीवानां कर्म जनयति । अप्पा देक्लइ मुणह पर णिच्छ एवं भणेइ आत्मा पुनः पश्यति जानाति परं नियमेन नियमनयः एवं ब्रुवते इति । तथाहि — मनाकुलल सब [ जीवानां ] जीवोंके [कर्मणा] कर्मकर [जनिताः] उपजे हैं, जीवसे भिन्न हैं, ऐसा जान ॥ भावार्थ- इन्द्रिय रहित शुद्धात्मासे विपरीत जो स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियाँ, शुभ अशुभ संकल्पविकल्पसे रहित आत्मासे विपरीत अनेक संकल्प-विकल्पसमूहरूप जो मन और शुद्धात्मतत्त्वकी अनुभूतिसे भिन्न जो राग, द्वेष, मोहादिरूप सब विभाव ये सब आत्मासे जुदे हैं, तथा वीतराग परमानंद सुखरूप अमृतसे पराङ्मुख जो समस्त चतुर्गतिके महान् दुःखदायी दुःख वे सब जीवपदार्थसे भिन्न हैं । ये सभी अशुद्धनिश्चयनयकर आत्मज्ञानके अभावसे उपार्जन किये हुए कर्मोंसे जीवके उत्पन्न हुए हैं । इसलिये ये सब अपने नहीं हैं, कर्मजनित हैं । यहाँपर परमात्मद्रव्यसे विपरीत जो पाँचों इन्द्रियोंको आदि लेकर सब विकल्प - जाल हैं, वे तो त्यागने योग्य हैं, उससे विपरीत पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंकी अभिलाषाको आदि लेकर सब विकल्प - जालोंसे रहित अपना शुद्धात्मतत्त्व वही परमसमाधिके समय साक्षात् उपादेय है । यह तात्पर्य जानना || ६३ ॥
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आगे संसारके सब सुख दुःख शुद्ध निश्चयनयसे शुभ अशुभ कर्मोंकर उत्पन्न होते हैं, और कर्मोंको ही उपजाते हैं, जीवके नहीं है, ऐसा कहते हैं - [ जीवानां] जीवोके [ बहुविधं] अनेक तरहके [दुःखमपि सुखं अपि ] दुःख और सुख दोनों ही [ कर्म] कर्म ही [ जनयति ] उपजाता है । [ आत्मा ] और आत्मा [ पश्यति ] उपयोगमयी होनेसे देखता है [ परं मनुते ] और केवल जानता है [एवं] इस प्रकार [निश्चयः ] निश्चयनय [ भणति ] कहता है, अर्थात् निश्चयनयपे भगवानने ऐसा कहा है । भावार्थ-आकुलता रहित पारमार्थिक वीतराग सुखसे परामुख (उलटा ) जो संसारके सुख दुःख यद्यपि अशुद्ध निश्चयनयकर जीवसम्बन्धी है, तो भी शुद्ध निश्चयनयकर
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