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________________ ६२ योगीन्दुदेवविरचितः [ दोहा ६१ झंपितं, केवलदर्शनं केवलदर्शनावरणेन शंपितम्, अनन्तवीर्यं वीर्यान्तरायेण प्रच्छादितं, सूक्ष्मलमायुष्ककर्मणा प्रच्छादितम् । कस्मादिति चेत् । विवक्षितायुः कर्मोदयेन भवान्तरे प्राप्ते सत्यतीन्द्रियज्ञानविषयं सूक्ष्मखं त्यक्त्वा पचादिन्द्रियज्ञान विषयो भवतीत्यर्थः । अवगाहनलं शरीरनामकर्मोदयेन प्रच्छादितं, सिद्धावस्थायोग्यं विशिष्टागुरुलघुलं नामकर्मोदयेन प्रच्छादितम् । गुरुत्वशब्देनोचगोत्रजनितं महत्वं भण्यते, लघुलशब्देन नीचगोत्रजनितं तुच्छखमिति, तदुभयकारणभूतेन गोत्रकर्मोदयेन विशिष्टागुरुलघुखं प्रच्छाद्यत इति । अन्याबाधगुणत्वं वेदनीयकर्मोदयेनेति संक्षेपेणाष्टगुणानां कर्मभिराच्छादनं ज्ञातव्यमिति । तदेव गुणाष्टकं मुक्तावस्थायां स्वकीयस्वकीयकर्मप्रच्छादनाभावे व्यक्तं भवतीति संक्षेपेणाष्टगुणाः कथिताः । विशेषेण पुनरमूर्तत्वनिर्नामगोत्रादयः साधारणासाधारणरूपानन्तगुणाः यथासंभवमागमाविरोधेन ज्ञातव्या इति । अत्र सम्यक्त्वादिशुद्धगुणस्वरूपः शुद्धात्मैवोपादेय इति भावार्थ: ।। ६१ ॥ अथ विषयकषायासक्तानां जीवानां ये कर्मपरमाणवः संबद्धा भवन्ति तत्कर्मेति कथयतिविसय-कसायहि ँ रंगियहँ जे अणुया लग्गंति । जीव-पएस हैं मोहियहँ ते जिण कम्म भणंति ॥ ६२ ॥ विषयकषायैः रञ्जितानां ये अणवः लगन्ति । जीवप्रदेशेषु मोहितानां तान् जिनाः कर्म भणन्ति ॥ ६२॥ बिसयकसायहिं रंगियहं जे अणुया लग्गंति विषयकषायै रंगितानां रक्तानां ये सिद्धोंके हैं, वे संसारावस्थामें किस किस कर्मसे ढँके हुए हैं, इसे कहते हैं- सम्यक्त्व गुण मिथ्यात्वनाम दर्शनमोहनीयकर्मसे आच्छादित है, केवलज्ञानावरणसे केवलज्ञान ढँका हुआ है, केवलदर्शनावरणसे केवलदर्शन ढँका है, वीर्यान्तरायकर्मसे अनंतवीर्य ढँका है, आयु:कर्मसे सूक्ष्मत्वगुण ढँका है, क्योंकि आयुकर्म उदयसे जब जीव परभवको जाता है, वहाँ इन्द्रियज्ञानका धारक होता है, अतीन्द्रियज्ञानका अभाव होता है, इस कारण कुछ एक स्थूलवस्तुओंको तो जानता है, सूक्ष्मको नहीं जानता, शरीरनामकर्मके उदयसे अवगाहनगुण आच्छादित है, सिद्धावस्थाके योग्य विशेषरूप अगुरुलघुगुण नामकर्मके उदयसे अथवा गोत्रकर्मके उदयसे ढँक गया है, क्योंकि गोत्रकर्मके उदयसे जब नीच गोत्र पाया, तब उसमें तुच्छ या लघु कहलाया, और उच्च गोत्रमें बडा अर्थात् गुरु कहलाया और वेदनीयकर्मके उदयसे अव्याबाध गुण ढँक गया, क्योंकि उसके उदय साता असातारूप सांसारिक सुख दुःखका भोक्ता हुआ । इस प्रकार आठ गुण आठ कर्मोंसे ढँक गये, इसलिये यह जीव संसारमें भ्रमा । जब कर्मका आवरण मिट जाता है, तब सिद्धपदमें ये आठ गुण प्रकट होते हैं । यह संक्षेपमें आठ गुणोंका कथन किया । विशेषतासे अमूर्तत्व निर्नामगोत्रादिक अनंतगुण यथासम्भव शास्त्र - प्रमाणसे जानने । तात्पर्य यह है, कि सम्यक्त्वादि निज शुद्ध गुणस्वरूप जो शुद्धात्मा है, वही उपादेय है ॥ ६१ ॥ आगे विषय-कषायोंमें लीन जीवोंके जो कर्मपरमाणुओंके समूह बँधते हैं, वे कर्म कहे जाते हैं, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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