________________
M
-दोहा ६१]
परमात्मप्रकाशः अथ तानि पुनः कर्माण्यष्टौ भवन्तीति कथयति
ते पुणु जीवह जोड्या अट्ट वि कम्म हवंति । जेरि जिपिय जीव णवि अप्प-सहाउ लहंति ।। ६१ ॥ तानि पुनः जीवानां योगिन् अष्टौ अपि कर्माणि भवन्ति ।
येः एव माविताः जीवाः नैव आत्मस्वभावं लभन्ते ॥ ६१॥ ते पुणु जीवई जोड्या अट्ठ वि कम्म हवंति तानि पुनर्जीवानां हे योगिमष्टावेव कर्माणि भवन्ति । जेहिं जि मंपिय जीव णवि अप्पसहाउ लहति यैरेव कर्मभिपिताः सन्तो जीवाः सम्यक्वायरविधवकीयस्वभावं न लभन्ते । तद्यथा हि—“सम्मत्तणाणदंसणवीरियमुहुमं तहेव अवगहणं । अगुरुगलहुगं अव्वाबाहं अट्ठगुणा हुंति सिद्धाणं॥"शुद्धात्मादिपदार्थविषये विपरीताभिनिवेशरहितः परिणामः क्षायिकसम्यक्त्वमिति भण्यते । जगत्रयकालत्रयवर्तिपदार्थयुगपहिशेषपरिच्छित्तिरूपं केवलज्ञानं भण्यते तत्रैव सामान्यपरिच्छित्तिरूपं केवलदर्शनं भण्यते । केवलज्ञानविषये अनन्तपरिच्छित्तिशक्तिरूपमनन्तवीर्य भण्यते । अतीन्द्रियज्ञानविषय सूक्ष्मलं भण्यते । एकजीवावगाहप्रदेशे अनन्तजीवावगाहदानसामर्थ्यमवगाहनवं भण्यते । एकान्तेन गुरुलघुलस्याभाषरूपेण मारुलघुसं भण्यते । वेदनीयकर्मोदयजनितसमस्तवापारहितसादव्यावावगुणवेति । इदं सम्पन्चादिगुणाष्टकं संसारावस्थायां किमपि केनापि कर्मणा प्रच्छादितं तिष्ठति यथा तथा कथ्यते । सम्यक्त्वं मिथ्यालकर्मणा प्रच्छादितं, केवलज्ञानं केवलज्ञानावरणेन उपादेयरूप वीतराग परमानन्द जो मोक्षका सुख उससे अभिन्न आनंदमयी ऐसा निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, अन्य सब हेय हैं ॥६०॥ __ आगे कहते हैं, वे कर्म आठ हैं, जिनसे संसारी जीव बँधे हैं-श्रीगुरु अपने शिष्य मुनिसे कहते हैं, कि [योगिन्] हे योगी, [तानि पुनः कर्माणि] वे फिर कर्म [जीवानां अष्टौ अपि] जीवोंके आठ ही [भवंति] होते हैं, [यैः एव झंपिताः] जिन कर्मोंसे ही आच्छादित (ढंके हुए) [जीवाः] ये जीवकर [आत्मस्वभावं] अपने सम्यक्त्वादि आठ गुणरूप स्वभावको [नैव लभंते] नहीं पाते।
अब उन्हीं आठ गुणोंका व्याख्यान करते हैं “सम्मत्त" इत्यादि । इसका अर्थ ऐसा है, कि शुद्ध आत्मादि पदार्थोंमें विपरीत श्रद्धान रहित जो परिणाम उसको क्षायिकसम्यक्त्व कहते हैं; तीन लोक तीन कालके पदार्थों को एक ही समयमें विशेषरूप सबको जानें, वह केवलज्ञान है; सब पदार्थोंको केवलदृष्टिसे एक ही समयमें देखे, वह केवलदर्शन है । उसी केवलज्ञानमें अनंतज्ञायक (जाननेकी) शक्ति वह अनंतवीर्य है, अतीन्द्रियज्ञानसे अमूर्तिक सूक्ष्म पदार्थों को जानना, आप चार ज्ञानके धारियोंसे न जाना जावे वह सूक्ष्मत्व हैं, एक जीवके अवगाह क्षेत्रमें (जगहमें) अनंते जीव समा जावें, ऐसी अवकाश देनेकी सामर्थ्य वह अवगाहनगुण है, सर्वथा गुरुता और लघुताका अभाव अर्थात् न गुरु न लघु-उसे अगुरुलघु कहते हैं, और वेदनीयकर्मके उदयके अभावसे उत्पन्न हुआ समस्त बाधा रहित जो निराबाधगुण उसे अव्याबाध कहते हैं । ये सम्यक्त्वादि आठ गुण जो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org