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________________ ६० योगीन्दुदेवविरचितः [ दोहा ६०भावार्थः ॥ तथा चोक्तम्-"मुक्तश्चेत्याग्भवे बद्धो नो बद्धो मोचनं वृथा । अबद्धो मोचनं नैव मुश्चेरों निरर्थकः ॥ अनादितो हि मुक्तश्चेत्पश्चाद्वन्धः कथं भवेत् । बन्धनं मोचनं नो चेन्मुञ्चेरथों निरर्थकः ॥"॥ ५९॥ अथ व्यवहारनयेन जीवः पुण्यपापरूपो भवतीति प्रतिपादयति एहु ववहारे जीवडउ हेउ लहेविणु कम्मु । बहुविह-भावे परिणवह तेण जि धम्मु अहम्मु ॥६० ॥ एष व्यवहारेण जीवः हेतुं लब्ध्वा कर्म । बहुविधभावेन परिणमतिं तेन एव धर्मः अधर्मः ॥ ६० ॥ एहु ववहारें जीवडउ हेउ लहेविणु कम्मु एष प्रत्यक्षीभूतो जीवो व्यवहारनयेन हेतुं लब्ध्वा । किम् । कर्मेति । बहुविहभावें परिणवइ तेण जि धम्मु अहम्मु बहुविधभावेन विकल्पज्ञानेन परिणमति तेनैव कारणेन धर्मोऽधर्मश्च भवतीति । तद्यथा। एष जीवः शुद्धनिश्चयेन वीतरागचिदानन्दैकखभावोऽपि पश्चाद्वयवहारेण वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनाभावेनोपार्जितं शुभाशुभं कर्म हेतुं लब्ध्वा पुण्यरूपः पापरूपश्च भवति । अत्र यद्यपि व्यवहारेण पुण्यपापरूपो भवति तथापि परमात्मानुभूत्यविनाभूतवीतरागसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रबहिर्द्रव्येच्छानिरोधलक्षणतपश्चरणरूपा या तु निश्चयचतुर्विधाराधना तस्या भावनाकाले साक्षादुपादेयभूतवीतरागपरमानन्दैकरूपो मोक्षसुखाभिन्नखात् शुद्धजीव उपादेय इति तात्पर्यार्थः॥ ६० ॥ दूसरी जगह भी कहा है-“मुक्तश्चेत्" इत्यादि । इसका अर्थ यह है, कि यदि यह जीव पहले बँधा हुआ होवे, तभी 'मुक्त' ऐसा कथन संभवता है, और यदि पहले बँधा ही नहीं तो फिर 'मुक्त' ऐसा कहना किस तरह ठीक हो सकता है ? मुक्त तो छूटे हुएका नाम है, सो जब बँधा ही नहीं, तो फिर 'छूटा' किस तरह कहा जा सकता है ? जो अबंध है, उसको छूटा कहना ठीक नहीं । जो विभावबंध मुक्ति मानते हैं, उनका कथन निरर्थक है । यदि यह अनादिका मुक्त ही होवे, तो पीछे बंध कैसे सम्भव हो सकता है ? बंध होवे तभी मोचन छुटकारा हो सके । यदि बंध न हो तो मुक्त कहना निरर्थक है ॥५९॥ आगे व्यवहारनयसे यह जीव पुण्य-पापरूप होता है, ऐसा कहते हैं-एष जीवः] यह जीव [व्यवहारेण] व्यवहारनयकर [कर्म हेतुं] कर्मरूप कारणको [सध्या] पाकर [बहुविधभावेन] अनेक विकल्परूप [परिणमति] परिणमता है । [तेन एव] इसीसे [धर्मः अधर्मः] पुण्य और पापरूप होता है । भावार्थ-यह जीव शुद्ध निश्चयनयकर वीतराग चिदानन्द स्वभाव है, तो भी व्यवहारनयकर वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानके अभावसे रागादिरूप परिणमनेसे उपार्जन किये शुभ अशुभ कर्मोंके कारणको पाकर पुण्यी तथा पापी होता है । यद्यपि यह व्यवहारनयकर पुण्य पापरूप है, तो भी परमात्माकी अनुभूतिसे तन्मयी जो वीतराग, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, और बाह्य पदार्थों में इच्छाके रोकनेरूप तप, ये चार निश्चयआराधना है, उनकी भावनाके समय साक्षात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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