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________________ ५७ -दोहा ५८] परमात्मप्रकाशः पर्यायाः केवलज्ञानादयः स्वभावगुणा असाधारणा इति । अगुरुलघुकाः स्वभावगुणास्तेषामेव गुणाना पड्डानिवृद्धिरूपस्वभावपर्यायाच सर्वद्रव्यसाधारणाः। तस्यैव जीवस्य मतिज्ञानादिविभावगुणा नरनारकादिविभावपर्यायाध इति । इदानीं पुद्गलस्य कथ्यन्ते । केवलपरमाणुरूपेणावस्थानं स्वभावपर्यायः वर्णान्तरादिरूपेण परिणमनं वा । तस्मिन्नेव परमाणौ वर्णादयः स्वभावगुणा इति, पणुकादिरूपस्कन्धरूपविभावपर्यायास्तेष्वेव द्वयणुकादिस्कन्धेषु वर्णादयो विभावगुणा इति भावार्थः। धर्माधर्माकाशकालानां स्वभावगुणपर्यायास्ते च यथावसरं कथ्यन्ते । विभावपर्यापास्तूपपारेण पवा घटाकाशमित्यादि । अत्र शुद्धगुणपर्यायसहितः शुद्धनीव एवोपारेच इति भावार्थः ॥ ५७॥ भव बीवस्य विशेषण द्रव्यगुणपर्यायान् कथयति भप्पा पुज्महि दव्यु तु गुण पुणु दंसणु णाणु । पजय चउ-गह-भाव तणु कम्म-विणिम्मिय जाणु ॥ ५८ ॥ आत्मानं बुध्यस्व द्रव्यं त्वं गुणौ पुनः दर्शनं ज्ञानम् । पर्यायान् चतुर्गतिभावान् तनुं कर्मविनिर्मितान् जानीहि ॥ ५८॥ अप्पा बुजसहिदम्बु तुहुं आत्मानं द्रव्यं बुध्यख जानीहि खम् । गुण पुणु दंसणु है, और सिद्धपर्याय तथा केवलज्ञानादि गुण सिद्धोंके ही पाया जाता है, दूसरोंके नहीं । संसारी जीवोंके मतिज्ञानादि विभावगुण और नर नारकी आदि विभावपर्याय ये संसारी-जीवोंके पायी जाती हैं । ये तो जीव-द्रव्यके गुण-पर्याय कहे और पुद्गलके परमाणुरूप तो द्रव्य तथा वर्ण आदि स्वभावगुण और एक वर्णसे दूसरे वर्णरूप होना, ये विभावगुण व्यंजन-पर्याय तथा एक परमाणुमें दो तीन इत्यादि अनेक परमाणु मिलकर स्कंधरूप होना, ये विभावद्रव्य व्यंजन-पर्याय हैं । द्वयणुकादि स्कंधमें जो वर्ण आदि हैं, वे विभावगुण कहे जाते हैं, और वर्णसे वर्णान्तर होना, रस से रसान्तर होना, गंधसे अन्य गंध होना, यह विभाव-पर्याय हैं । परमाणु शुद्ध द्रव्यमें एक वर्ण, एक रस, एक गन्ध, और शीत उष्णमेंसे एक, तथा सखे चिकनेमेंसे एक, ऐसे दो स्पर्श इस तरह पाँच गुण तो मुख्य हैं, इनको आदिदे अस्तित्वादि अनंतगुण हैं, वे स्वभाव-गुण कहे जाते हैं, और परमाणुका जो आकार वह स्वभावद्रव्य व्यंजन पर्याय है, तथा वर्णादि गुणरूप परिणमन वह स्वभावगुण व्यंजन-पर्याय है। जीव और पुद्गल इन दोनोंमें तो स्वभाव और विभाव दोनों हैं, तथा धर्म, अधर्म, आकाश, काल, इन चारोंमें अस्तित्वादि स्वभाव-गुण ही हैं, और अर्थ-पर्याय षट्गुणी हानि वृद्धिसप स्वभाव-पर्याय सभीके हैं । धर्मादिक चार पदार्थोंके विभावगुण-पर्याय नहीं हैं । आकाशके घटाकाश मठाकाश इत्यादिकी जो कहावत है, यह उपचारमात्र है । ये षद्रव्योंके गुणपर्याय कहे हैं । इन षट् द्रव्योंमें जो शुद्ध गुण, शुद्ध पर्याय सहित जो शुद्ध जीवद्रव्य है, वही उपादेय है-आराधने योग्य है ॥५७।। आगे जीवके विशेषपनेकर द्रव्य-गुणपर्याय कहते हैं-हे शिष्य, [त्वं] तू [आत्मानं] आत्माको तो [द्रव्यं] द्रव्य [युष्यस्व] जान, [पुनः] और [दर्शनं ज्ञानं] दर्शन ज्ञानको [गुणौ] गुण जान, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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