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________________ ५८ योगीन्दुदेवविरचितः [ दोहा ५८णाणु गुणौ पुनदर्शनं ज्ञानं च । पज्जय चउगइभाव तणु कम्मविणिम्मिय जाणु तस्यैव जीवस्य पर्यायांश्चतुर्गतिभावान् परिणामान् तनुं शरीरं च । कथंभूतान् तान् । कर्मविनिर्मितान् जानीहीति । इतो विशेषः। शुद्धनिश्चयेन शुद्धबुद्धकस्वभावमात्मानं द्रव्यं जानीहि । तस्यैवात्मनः सविकल्पं ज्ञानं निर्विकल्पं दर्शनं गुण इति । तत्र ज्ञानमष्टविधं केवलज्ञानं सकलमखण्डं शुद्धमिति शेषं सप्तकं खण्डज्ञानमशुद्धमिति । तत्र सप्तकमध्ये मत्यादिचतुष्टयं सम्यग्ज्ञानं कुमत्यादित्रयं मिथ्याज्ञानमिति । दर्शनचतुष्टयमध्ये केवलदर्शनं सकलमखण्डं शुद्धमिति चक्षुरादित्रयं विकलमशुद्धमिति। किं च । गुणास्त्रिविधा भवन्ति । केचन साधारणाः; केचनासाधारणाः, केचन साधारणासाधारणा इति । जीवस्य तावदुच्यन्ते । अस्तिवं वस्तुवं प्रमेयखागुरुलघुखादयः साधारणाः, ज्ञानसुखादयः स्वजातौ साधारणा अपि विजातौ पुनरसाधारणाः।अमूर्तवं पुद्गलद्रव्यं प्रत्यसाधारणमाकाशादिकं प्रति साधारणम् । प्रदेशवं पुनः कालद्रव्यं प्रति पुद्गलपरमाणुद्रव्यं च प्रत्यसाधारण शेषद्रव्यं प्रति साधारणमिति संक्षेपव्याख्यानम् । एवं शेषद्रव्याणामपि यथासंभवं ज्ञातव्यमिति भावार्थः॥५८॥ ___अथानन्तसुखस्योपादेयभूतस्याभिन्नखात् शुद्धगुणपर्याय इति प्रतिपादनमुख्यखेन सूत्राष्टकं कथ्यते । तत्राष्टकमध्ये प्रथमचतुष्टयं कर्मशक्तिस्वरूपमुख्यखेन द्वितीयचतुष्टयं कर्मफलमुख्यखे[चतुर्गतिभावान् तनुं] चार गतियोंके भाव तथा शरीरको [कर्मविनिर्मितान्] कर्मजनित [पर्यायान्] विभाव-पर्याय [जानीहि] समझ ॥ भावार्थ-इसका विशेष व्याख्यान करते हैं-शुद्धनिश्चयनयकर शुद्ध, बुद्ध, अखंड, स्वभाव आत्माको तू द्रव्य जान, चेतनपनेके सामान्य स्वभावको दर्शन जान, और विशेषतासे जानपना उसको ज्ञान समझ । ये दर्शन ज्ञान आत्माके निज गुण हैं, उनमेंसे ज्ञानके आठ भेद हैं, उनमें केवलज्ञान तो पूर्ण है, अखंड है, शुद्ध है, तथा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान ये चार ज्ञान तो सम्यक्ज्ञान और कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ये तीन मिथ्या ज्ञान, ये केवलकी अपेक्षा सातों ही खंडित हैं, अखंड नहीं हैं, और सर्वथा शुद्ध नहीं हैं, अशुद्धता सहित हैं, इसलिये परमात्मामें एक केवलज्ञान ही है । पुद्गलमें अमूर्तगुण नहीं पाये जाते, इस कारण पाँचोंकी अपेक्षा साधारण, पुद्गलकी अपेक्षा असाधारण । प्रदेशत्वगुण कालके बिना पाँच द्रव्योंमें पाया जाता है, इसलिये पाँचकी अपेक्षा यह प्रदेशगुण साधारण है, और कालमें न पानेसे कालकी अपेक्षा असाधारण है । पुद्गल द्रव्यमें मूर्तिकगुण असाधारण है, इसीमें पाया जाता है, अन्यमें नहीं और अस्तित्वादि गुण इसमें भी पाये जाते हैं, तथा अन्यमें भी, इसलिये साधारणगुण हैं । चेतनपना पुद्गलमें सर्वथा नहीं पाया जाता । पुद्गल परमाणुको द्रव्य कहते हैं । स्पर्श, रस, गंध, वर्णस्वरूप जो मूर्ति वह इस पुद्गलका विशेषगुण है । अन्य सब द्रव्योंमें जो उनका स्वरूप है, वह द्रव्य है, और अस्तित्वादि गुण, तथा स्वभाव परिणति पर्याय है । जीव और पुद्गलके बिना अन्य चार द्रव्योंमें विभाव-गुण और विभाव-पर्याय नहीं है, तथा जीव पुद्गलमें स्वभाव विभाव दोनों हैं । उनमेंसे सिद्धोंमें तो स्वभाव ही है, और संसारीमें विभावकी मुख्यता है । पुद्गल परमाणुमें स्वभाव ही हैं, और स्कंधमें विभाव ही है । इस तरह छहों द्रव्योंका संक्षेपसे व्याख्यान जानना ॥५८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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