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________________ ५६ योगीन्दुदेवविरचितः [ दोहा ५७__ अथ द्रव्यगुणपर्यायस्वरूपं प्रतिपादयति तं परियाणहि दवु तुहुँ जं गुण-पज्जय-जुसु । सह-भुव जाणहि ताहँ गुण कम-भुव पन्जड वुत्तु ।। ५७ ॥ तत् परिजानीहि द्रव्यं त्वं यत् गुणपर्याययुक्तम् । सहभुवः जानीहि तेषां गुणाः क्रमभुवः पर्यायाः उक्ताः ॥ ५७ ॥ तं परियाणहि दव्वु तुहुं जं गुणपज्जयजुतु तत्परि समन्ताजानीहि द्रव्यं खम् । तत्किम् । यद्गुणपर्याययुक्तं, गुणपर्यायस्य स्वरूपं कथयति । सानुष जाणहि ताहं गुण कमभुव पजउ वुत्तु सहभुवो जानीहि तेषां द्रव्याणां गुणाः, क्रमश्वः पर्याया उक्ता भणिता इति । तद्यथा। गुणपर्ययवद् द्रव्यं ज्ञातव्यम् । इदानीं तस्य तद्रष्यस्य गुणपर्यायाः कथ्यन्ते। सहभुवो गुणाः, क्रमभुवः पर्यायाः, इदमेकं तावत्सामान्यलक्षणम् । अन्वयिनो गुणाः व्यतिरेकिणः पर्यायाः, इति द्वितीयं च । यथा जीवस्य ज्ञानादयः पुद्गलस्य वर्णादयश्चेति । ते च प्रत्येक द्विविधाः स्वभावविभावभेदेनेति । तथाहि । जीवस्य यावत्कथ्यन्ते । सिद्धखादयः स्वभाव____ आगे द्रव्य, गुण, पर्यायका स्वरूप कहते हैं यत्] जो [गुणपर्याययुक्तं] गुण और पर्यायोंकर सहित है, [तत्] उसको [त्वं] हे प्रभाकरभट्ट, तू [द्रव्यं] द्रव्य [परिजानीहि] जान, [सहभुवः] जो सदाकाल पाये जावें, नित्यरूप हों, वे तो [तेषां गुणाः] उन द्रव्योंके गुण हैं, [क्रमभुवः] और जो द्रव्यकी अनेकरूप परिणति क्रमसे हों अर्थात् अनित्यपनेरूप समय समय उपजे, विनशे, नानास्वरूप हों वह [पर्यायाः] पर्याय [उक्ताः] कही जाती है ।। भावार्थ-जो द्रव्य होता है, वह गुणपर्यायकर सहित होता है । यही कथन तत्त्वार्थसूत्रमें कहा है ‘गुणपर्ययवद्रव्यं । अब गुणपर्यायका स्वरूप कहते हैं-“सहभुवो गुणाः क्रमभुवः पर्यायाः" यह नयचक्र ग्रंथका वचन है, अथवा 'अन्वयिनो गुणा व्यतिरेकिणः पर्यायाः” इनका अर्थ ऐसा है, कि गुण तो सदा द्रव्यसे सहभावी है, द्रव्यमें हमेशा एकरूप नित्यरूप पाये जाते हैं, और पर्याय नानारूप होती हैं, जो परिणति पहले समयमें थी, वह दूसरे समयमें नहीं होती, समय समयमें उत्पाद व्ययरूप होता है, इसलिये पर्याय क्रमवर्ती कहा जाता है । अब इसका विस्तार कहते हैं-जीव द्रव्यके ज्ञान आदि अर्थात् ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनंत गुण हैं, और पुद्गल द्रव्यके स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, इत्यादि अनंतगुण हैं, सो ये गुण तो द्रव्यमें सहभावी हैं, अन्वयी हैं, सदा नित्य हैं, कभी द्रव्यसे तन्मयपना नहीं छोडते । तथा पर्यायके दो भेद हैं-एक तो स्वभाव, दूसरा विभाव । जीयके सिद्धत्वादि स्वभाव-पर्याय हैं, और केवलज्ञानादि स्वभाव-गुण हैं । ये तो जीवमें ही पाये जाते हैं, अन्य द्रव्यमें नहीं पाये जाते । तथा अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, अगुरुलघुत्व, ये स्वभावगुण सब द्रव्योंमें पाये जाते हैं । अगुरुलघु गुणका परिणमन षट्गुणी हानि वृद्धिरूप है । यह स्वभावपर्याय सभी द्रव्योंमें हैं, कोई द्रव्य षट्गुणी हानिवृद्धि विना नहीं है, यही अर्थ-पर्याय कही जाती हैं, वह शुद्ध पर्याय हैं । यह शुद्ध पर्याय संसारी-जीवोंके, सब अजीव-पदार्थोंके तथा सिद्धोंके पायी जाती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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