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-दोहा ५६]
परमात्मप्रकाशः कर्माणि जनयति तथापि शुद्धनिश्चयनयेन शक्तिरूपेण कर्मकर्तृभूतेन नरनारकादिपर्यायेण न जन्यते स्वयं च कर्मनोकर्मादिकं न जनयतीति । आत्मा पुनन केवलं शुद्धनिश्चयनयेन व्यवहारेणापि न च जन्यते न च जनयति तेन कारणेन द्रव्याथिकनयेन नित्यो भवति, पर्यायार्थिकनयेनोत्पद्यते विनश्यति चेति । अत्राह शिष्यः । मुक्तात्मनः कथमुत्पादव्ययाविति । परिहारमाह। आगमप्रसिद्धयागुरुलघुकगुणहानिवृद्धयपेक्षया, अथवा येनोत्पादादिरूपेण ज्ञेयं वस्तु परिणमति तेन परिच्छित्त्याकारेण ज्ञानपरिणत्यपेक्षया । अथवा मुक्तौ संसारपर्यायविनाशः सिद्धपर्यायोत्पादः शुद्धजीवद्रव्यं ध्रौव्यापेक्षया च सिद्धानामुत्पादव्ययौ ज्ञातव्याविति । अत्र तदेव सिद्धस्वरूपमुपादेयमिति भावार्थः ॥ ५६ ॥ उपजाता (बाँधता) है, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर शक्तिरूप शुद्ध ही है, कर्मोंसे उत्पन्न हुई नर नारकादि पर्यायरूप नहीं होता, और आप भी कर्म नोकर्मादिकको नहीं उपजाता और व्यवहारसे भी न जन्मता है, न किसीसे विनाशको प्राप्त होता है, न किसीको उपजाता है, कारणकार्यसे रहित है, अर्थात् कारण उपजानेवालेको कहते हैं । कार्य उपजनेवालेको कहते हैं । सो ये दोनों भाव वस्तुमें नहीं हैं, इससे द्रव्यार्थिकनयकर जीव नित्य है, और पर्यायार्थिकनयकर उत्पन्न होता है, तथा विनाशको प्राप्त होता है । यहाँ पर शिष्य प्रश्न करता है, कि संसारी जीवोंके तो नर नारकी आदि पर्यायोंकी अपेक्षा उत्पत्ति और मरण प्रत्यक्ष दीखता है, परन्तु सिद्धोंके उत्पाद, व्यय किस तरह हो सकता है ? क्योंकि उनके विभाव-पर्याय नहीं है, स्वभाव-पर्याय ही है, और वे सदा अखंड अविनश्वर ही हैं । इसका समाधान यह है कि जैसा उत्पन्न होना, मरना, चारों गतियोंमें संसारीजीवोंके है, वैसा तो उन सिद्धोंके नहीं है, वे अविनाशी हैं, परंतु शास्त्रोंमें प्रसिद्ध अगुरुलघु गुणकी परिणतिरूप अर्थपर्याय है, वह समय समयमें आविर्भावतिरोभावरूप होती है । अर्थात् समय-समयमें पूर्वपरिणतिका व्यय होता है और आगेकी पर्यायका आविर्भाव (उत्पाद) होता है । इस अर्थपर्यायकी अपेक्षा उत्पाद व्यय जानना, अन्य संसारी-जीवोंकी तरह नहीं है । सिद्धोंके एक तो अर्थपर्यायकी अपेक्षा उत्पाद व्यय कहा है । अर्थपर्यायमें षट्गुणी हानि और वृद्धि होती है । अनंतभागवृद्धि १, असंख्यातभागवृद्धि २, संख्यातभागवृद्धि ३, संख्यातगुणवृद्धि ४, असंख्यातगुणवृद्धि ५, अनंतगुणवृद्धि ६ । अनंतभागहानि १, असंख्यातभागहानि २, संख्यातभागहानि ३, संख्यातगुणहानि ४, असंख्यातगुणहानि ५, अनंतगुणहानि ६। ये षट्गुणी हानि वृद्धिके नाम कहे हैं । इनका स्वरूप तो केवलीके गम्य है, सो इस षट्गुणी हानि-वृद्धिकी अपेक्षा सिद्धोंके उत्पाद व्यय कहा जाता है । अथवा समस्त ज्ञेयपदार्थ उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप परिणमते हैं सो सब पदार्थ सिद्धोंके ज्ञानगोचर हैं । ज्ञेयाकार ज्ञानकी परिणति है, सो जब ज्ञेय-पदार्थमें उत्पाद व्यय हुआ, तब ज्ञानमें सब प्रतिभासित हुआ, इसलिये ज्ञानकी परिणतिकी अपेक्षा उत्पाद व्यय जानना । अथवा जब सिद्ध हुए, तब संसार-पर्यायका विनाश हुआ, सिद्धपर्यायका उत्पाद हुआ, तथा द्रव्य स्वभावसे सदा ध्रुव ही हैं । सिद्धोंके जन्म, जरा, मरण नहीं हैं, सदा अविनाशी हैं । सिद्धका स्वरूप सब उपाधियोंसे रहित हैं, वही उपादेय है, यह भावार्थ जानना ॥५६।।
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