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________________ योगीन्दुदेवविरचितः [ दोहा ५६ पञ्चास्तिकाये - " जेसिं जीवसहावो णत्थि अभावो य सव्वहा तत्थ । ते होंति भिण्णदेहा सिद्धा वचिगोयरमदीदा ” । अत्र य एव मिथ्यात्वरागादिभावेन शून्यश्चिदानन्दैकस्वभावेन भरितावस्थः प्रतिपादितः परमात्मा स एवोपादेय इति तात्पर्यार्थः ।। ५५ ।। एवं त्रिविधात्मप्रतिपादकप्रथममहाधिकारमध्ये य एव ज्ञानापेक्षया व्यवहारनयेन लोकालोकव्यापको भणितः स एव परमात्मा निश्चयनयेनासंख्यातप्रदेशोऽपि स्वदेहमध्ये तिष्ठतीति व्याख्यानमुख्यत्वेन सूत्रषट्कं गतम् । तदनन्तरं द्रव्यगुणपर्यायनिरूपणमुख्यत्वेन सूत्रत्रयं कथयति । तद्यथा - अप्पा जणियउ केण ण वि अप्पें जणिउ ण कोइ । दव्व-सहावे णिचु मुणि पज्जड विणसइ होइ ॥ ५६ ॥ आत्मा जनितः केन नापि आत्मना जनितं न किमपि । ५४ द्रव्यस्वभावेन नित्यं मन्यस्व पर्यायः विनश्यति भवति ॥ ५६ ॥ आत्मा न जनितः केनापि आत्मना कर्तृभूतेन जनितं न किमपि द्रव्यस्वभावेन नित्यमात्मानं मन्यस्व जानीहि । पर्यायो विनश्यति भवति चेति । तथाहि । संसारिजीवः शुद्धात्मसंवित्यभावेनोपार्जितेन कर्मणा यद्यपि व्यवहारेण जन्यते स्वयं च शुद्धात्मसंवित्तिच्युतः सन् शून्यता ही है । तथा सिद्ध जीवोंके तो सब तरहसे प्रगटरूप रागादिसे रहितपना है, इसलिये विभावोंसे रहितपनेकी अपेक्षा शून्यभाव है, इसी अपेक्षासे आत्माको शून्य भी कहते हैं । ज्ञानादिक शुद्ध भावकी अपेक्षा सदा पूर्ण ही है, और जिस तरह बौद्धमती सर्वथा शून्य मानते हैं, वैसा अनंतज्ञानादि गुणोंसे कभी नहीं हो सकता । ऐसा कथन श्रीपंचास्तिकायमें भी किया है - " जेसिं जीवसहावो" इत्यादि । इसका अभिप्राय यह है, कि जिन सिद्धोंके जीवका स्वभाव निश्चल है, जिस स्वभावका सर्वथा अभाव नहीं है, वे सिद्धभगवान देहसे रहित हैं, और वचनके विषयसे रहित हैं, अर्थात् जिनका स्वभाव वचनोंसे नहीं कह सकते । यहाँ मिथ्यात्व रागादिभावकर शून्य तथा एक चिदानंदस्वभावसे पूर्ण जो परमात्मा कहा गया है, अर्थात् विभावसे शून्य स्वभावसे पूर्ण कहा गया है, वही उपादेय है, ऐसा तात्पर्य हुआ || ५५|| ऐसे जिसमें तीन प्रकारके आत्माका कथन है, ऐसे पहले महा अधिकारमें जो ज्ञानकी अपेक्षा व्यवहारनयसे लोकालोकव्यापक कहा गया, वही परमात्मा निश्चयनयसे असंख्यातप्रदेशी है, तो भी अपनी देहके प्रमाण रहता है, इस व्याख्यानकी मुख्यतासे छह दोहा-सूत्र कहे गये। आगे द्रव्य, गुण, पर्यायके कथन की मुख्यतासे तीन दोहे कहते हैं - [ आत्मा ] यह आत्मा [केन अपि ] किसीसे भी [न जनितः ] उत्पन्न नहीं हुआ, [आत्मना ] और इस आत्मासे [ किमपि ] कोई द्रव्य [न जनितं ] उत्पन्न नहीं हुआ, [द्रव्यस्वभावेन ] द्रव्यस्वभावकर [ नित्यं मन्यस्व ] नित्य जानो, [ पर्यायः विनश्यति भवति ] पर्यायभावसे विनाशिक है । भावार्थ - यह संसारी-जीव यद्यपि व्यवहारनयकर शुद्धात्मज्ञानके अभावसे उपार्जन किये ज्ञानावरणादि शुभाशुभ कर्मोंके निमित्तसे नर नारकादि पर्यायोंसे उत्पन्न होता है, और विनसता है, और आप भी शुद्धात्मज्ञानसे रहित हुआ कर्मोंको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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