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-दोहा ५५ ]
परमात्मप्रकाशः किंरूपसंहारविस्तारौ । शरीरनामकर्मजनितौ । तेन कारणेन शुष्कमृत्तिकाभाजनवत् कारणाभावादुपसंहारविस्तारौ न भवतः । चरमशरीरप्रमाणेन तिष्ठतीति । अत्र य एव मुक्तौ शुद्धबुद्धस्वभावः परमात्मा तिष्ठति तत्सदृशो रागादिरहितकाले स्वशुद्धात्मोपादेय इति भावार्थः ॥ ५४ ॥
अथाष्टकर्माष्टादशदोषरहितत्वापेक्षया शून्यो भवतीति न च केवलज्ञानादिगुणापेक्षया चेति दर्शयति
अह वि कम्मइँ बहुविहइँ णवणव दोस वि जेण । सुद्धहे एकु वि अत्थि णवि सुण्णु वि वुच्चइ तेण ।। ५५ ॥ अष्टावपि कर्माणि बहुविधानि नवनव दोषा अपि येन ।
शुद्धानां एकोऽपि अस्ति नैव शून्योऽपि उच्यते तेन ॥ ५५॥ अष्टावपि कर्माणि बहुविधानि नवनव दोषा अपि येन कारणेन शुद्धात्मनां तन्मध्ये चैकोऽप्यस्ति नैव शून्योऽपि भण्यते तेन कारणेनैवेति । तद्यथा । शुद्धनिश्चयनयेन ज्ञानावरणाधष्टद्रव्यकर्माणि क्षुधादिदोषकारणभूतानि क्षुधातृषादिरूपाष्टदशदोषा अपि कार्यभूताः, अपिशब्दासत्ताचैतन्यबोधादिशुद्धपाणरूपेण शुद्धजीविते सत्यपि दशमाणरूपनशुद्धजीवत्वं च नास्ति तेन कारणेन संसारिणां निश्चयनयेन शक्तिरूपेण रागादिविभावशून्यं च भवति । मुक्तात्मनां तु व्यक्तिरूपेणापि न चात्मानन्तज्ञानादिगुणशून्यखमेकान्तेन बौद्धादिमतवदिति । तथा चोक्तं तक नामकर्मका संबध है, तब तक संसार-अवस्थामें शरीरकी हानि-वृद्धि होती है, उसकी हानिवृद्धिसे प्रदेश सिकुडते हैं और फैलते हैं । तथा सिद्ध-अवस्थामें नामकर्मका अभाव हो जाता है, इस कारण शरीरके न होनेसे प्रदेशोंका संकोच विस्तार नहीं होता, सदा एकसे ही रहते हैं । जिस शरीरसे मुक्त हुआ, उसी प्रमाण कुछ कम रहता है । दीपकका प्रकाश तो स्वभावसे उत्पन्न है, इससे आवरणसे आच्छादित हो जाता है । जब आवरण दूर हो जाता है, तब प्रकाश सहज ही विस्तरता है । यहाँ तात्पर्य यह है, कि जो शुद्ध बुद्ध (ज्ञान) स्वभाव परमात्मा मुक्तिमें तिष्ठ रहा है, वैसा ही शरीरमें भी विराज रहा है । जब रागका अभाव होता है, उस कालमें यह आत्मा परमात्माके समान है, वही उपादेय है ॥५४॥
आगे आठ कर्म और अठारह दोषोंसे रहित हुआ विभाव-भावोंकर रहित होनेसे शून्य कहा जाता है, लेकिन केवलज्ञानादि गुणकी अपेक्षा शून्य नहीं है, सदा पूर्ण ही है, ऐसा दिखलाते हैं-येन] जिस कारण [अष्टौ अपि] आठों ही [बहुविधानि कर्माणि] अनेक भेदोंवाले कर्म [नवनव दोषा अपि] अठारह ही दोष इनमेंसे [एकः अपि] एक भी [शुद्धानां] शुद्धात्माओंके [नैव अस्ति] नहीं है, [तेन] इसलिये [शून्योऽपि] शून्य भी [भण्यते] कहा जाता है । भावार्थ-इस आत्माके शुद्धनिश्चयनयकर ज्ञानावरणादि आठ द्रव्यकर्म नहीं है, क्षुधादि दोषोंके कारणभूत कर्मोंके नाश हो जानेसे क्षुधा तृषादि अठारह दोष कार्यरूप नहीं हैं, और अपि शब्दसे सत्ता चैतन्य ज्ञान आनंदादि शुद्ध प्राण होनेपर भी इंद्रियादि दश अशुद्धरूप प्राण नहीं हैं, इसलिये संसारी-जीवोंके भी शुद्धनिश्चयनयसे शक्तिरूपसे शुद्धपना है, लेकिन रागादि विभाव-भावोंकी
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