________________
योगीन्दुदेवविरचितः
[ दोहा ५४कारणविरहितः शुद्धजीवः वर्धते क्षरति न येन ।
चरमशरीरप्रमाणं जीवं जिनवराः ब्रुवन्ति तेन ॥ ५४॥ कारणविरहितः शुद्धजीवो वर्धते भरति हीयते न येन कारणेन चरमशरीरप्रमाणं मुक्तजीवं जिनवरा भणन्ति तेन कारणेनेति । तथाहि—यद्यपि संसारावस्थायां हानिवृद्धिकारणभूतशरीरनामकर्मसहितवाद्धीयते वर्धते च तथापि मुक्तावस्थायां हानिवृद्धिकारणाभावाद्वर्धते हीयते च नैव, शरीरप्रमाण एव तिष्ठतीत्यर्थः। कश्चिदाह-मुक्तावस्थायां प्रदीपवदावरणाभावे सति लोकप्रमाणविस्तारेण भाव्यमिति । तत्र परिहारमाह-पदीपस्य योऽसौ प्रकाशविस्तारः स स्वभावज एव न खपरजनितः पश्चाद्भाजनादिना सायावरणेन प्रच्छादितस्तेन कारणेन तस्यावरणाभावेऽपि प्रकाशविस्तारो घटते एव । जीवस्य पुनरनादिकर्मपच्छादितखात्पूर्व स्वभावेन विस्तारो नास्ति। कारण मुक्त अवस्थामें चरम-शरीरसे कुछ कम पुरुषाकार रहता है, इसलिये शरीरप्रमाण भी कहा जाता है, ऐसा कहते हैं-येन] जिस हेतु [कारणविरहितः] हानि-वृद्धिका कारण शरीर नामकर्मसे रहित हुआ [शुद्धजीवः] शुद्धजीव [न वर्धते क्षरति] न तो बढ़ता है, और न घटता है, [तेन] इसी कारण [जिनवराः] जिनेंद्रदेव [जीवं] जीवको [चरमशरीरप्रमाणं] चरमशरीर प्रमाण [ब्रुवन्ति] कहते हैं ॥ भावार्थ-यद्यपि संसार अवस्थामें हानि-वृद्धिका कारण शरीरनामा नामकर्म है, उसके संबंधसे जीव घटता है, और बढता है; जब महामच्छका शरीर पाता है, तब तो शरीरकी वृद्धि होती है, और जब निगोदिया शरीर धारण करता है, तब घट जाता है, और मुक्त अवस्थामें हानि-वृद्धिका कारण जो नामकर्म उसका अभाव होनेसे जीवके प्रदेश न तो सिकुडते हैं, न फैलते हैं, किंतु चरमशरीरसे कुछ कम पुरुषाकार ही रहते हैं, इसलिये शरीरप्रमाण हैं, यह निश्चय हुआ । यहाँ कोई प्रश्न करे, कि जब तक दीपकके आवरण है, तब तक तो प्रकाश नहीं हो सकता है, और जब उसके रोकनेवालेका अभाव हुआ, तब प्रकाश विस्तृत होकर फैल जाता है, उसी प्रकार मुक्तिअवस्थामें आवरणके अभाव होनेसे आत्माके प्रदेश लोकप्रमाण फैलने चाहिये, शरीर-प्रमाण ही क्यों रह गये ? उसका समाधान यह है, कि दीपकके प्रकाशका जो विस्तार है, वह स्वभावसे होता है, परसे नहीं उत्पन्न हुआ, पीछे भाजन वगैरहसे अथवा दूसरे आवरणसे आच्छादन किया गया, तब वह प्रकाश संकोचको प्राप्त हो जाता है, जब आवरणका अभाव होता है, तब प्रकाश विस्तार रूप हो जाता है, इसमें संदेह नहीं और जीवका प्रकाश अनादिकालसे कर्मोंसे ढका हुआ है, पहले कभी विस्ताररूप नहीं हुआ । शरीर-प्रमाण ही संकोचरूप और विस्ताररूप हुआ, इसलिये जीवके प्रदेशोंका प्रकाश संकोच विस्ताररूप शरीरनामकर्मसे उत्पन्न हुआ है, इस कारण सूखी मिट्टीके बर्तनकी तरह कारणके अभावसे संकोचविस्ताररूप नहीं होता, शरीर-प्रमाण ही रहता है, अर्थात् जब तक मिट्टीका बर्तन जलसे गीला रहता है, तब तक जलके सम्बन्धसे वह घट बढ़ जाता है, और जब जलका अभाव हुआ, तब बर्तन सूख जानेसे घटता बढता नहीं है-जैसेका तैसा रहता है । उसी तरह इस जीवके जब
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org