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________________ परमात्मप्रकाशः -दोहा ५४] ५१ महद्रणं प्रामोतीति । अत्र येनैव ज्ञानेन व्यापको भण्यते तदेवोपादेयस्यानन्तसुखस्याभिन्नसादुपादेयमित्यभिप्रायः॥५२॥ ___ अथ येन कारणेन निजबोपं लध्वात्मन इन्द्रियमानं नास्ति तेन कारणेन जडो भवतीत्यभिमायं मनसि धृता सूत्रमिदं कथयति जे णिय-बोह-परिडियाँ जीवहँ तुइ णाणु । इंदिय-जणियउ जोइया तिं जिउ जहु वि वियाणु ॥५३ ॥ येन निजबोधप्रतिष्ठितानां जीवानां त्रुट्यति ज्ञानम् । इन्द्रियजनितं योगिन् तेन जीवं जडमपि विजानीहि ॥ ५३॥ येन कारणेन निजबोधप्रतिष्ठितानां जीवानां त्रुटयति विनश्यति । किं कर्तृ । ज्ञानम् । कथंभूतम् । इन्द्रियजनितं हे योगिन् तेन कारणेन जीवं जडमपि विजानीहि । तद्यथा । छद्मस्थानां वीतरागनिर्विकल्पसमाधिकाले स्वसंवेदनज्ञाने सत्यपीन्द्रियजनितं ज्ञानं नास्ति, केवलज्ञानिनां पुनः सर्वदैव नास्ति तेन कारणेन जडसमिति । अत्र इन्द्रियज्ञानं हेयमतीन्द्रियज्ञानमुपादेयमिति भावार्थः ॥ ५३॥ ___ अथ शरीरनामकर्मकारणरहितो जीवो न वर्धते न च हीयते तेन कारणेन मुक्तश्चरमशरीरप्रमाणो भवतीति निरूपयति कारण-विरहिउ सुद्ध-जिउ बड़ा खिरह ण जेण । चरम-सरीर-पमाणु जिउ जिणवर बोल्लहि तेण ॥ ५४॥ और आनन्दमें भेद नहीं है, वही ज्ञान उपादेय है, यह अभिप्राय जानना । इस दोहेमें जीवको ज्ञानकी अपेक्षा सर्वगत कहा है ॥५२॥ आगे आत्मज्ञानको पाकर इन्द्रियज्ञान नाशको प्राप्त होता है, परमसमाधिमें आत्मस्वरूपमें लीन है, परवस्तुकी गम्य नहीं है, इसलिये नयप्रमाणकर जड भी है, परन्तु ज्ञानाभावरूप जड नहीं है, चैतन्यरूप ही है, अपेक्षासे जड कहा जाता है, यह अभिप्राय मनमें रखकर गाथा-सूत्र कहते हैं-[येन] जिस अपेक्षा [निजबोधप्रतिष्ठितानां] आत्मज्ञानमें ठहरे हुए [जीवानां] जीवोंके [इंद्रियजनितं ज्ञानं] इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ ज्ञान [त्रुट्यति] नाशको प्राप्त होता है, [योगिन्] हे योगी, [तेन] उसी कारणसे [जीवं] जीवको [जडमपि] जड भी [विजानीहि] जानो ॥ भावार्थ-महामुनियोंके वीतरागनिर्विकल्प-समाधिके समयमें स्वसंवेदनज्ञान होनेपर भी इन्द्रियजनित ज्ञान नहीं है, और केवलज्ञानियोंके तो किसी समय भी इन्द्रियज्ञान नहीं है, केवल अतीन्द्रियज्ञान ही है, इसलिये इन्द्रिय-ज्ञानके अभावकी अपेक्षा आत्मा जड भी कहा जा सकता है । यहाँपर बाह्य इन्द्रिय-ज्ञान सब तरह हेय है, और अतीन्द्रियज्ञान उपादेय है, यह सारांश हुआ ॥५३॥ आगे शरीरनामा नामकर्मरूप कारणसे रहित यह जीव न घटता है, और न बढता है, इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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