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________________ परमात्मप्रकाशः -दोहा ३९] तात्पर्यार्थः ॥ ३७॥ अथानन्ताकाशैकनक्षत्रमिव यस्य केवलज्ञाने त्रिभुवनं प्रतिभाति स परमात्मा भवतीति कथयति गयणि अणंति वि एक उडु जेहउ भुयणु विहाइ । मुक्कहँ जसु पए बिंबियउ सो परमप्पु अणाइ ॥ ३८ ॥ गगने अनन्तेऽपि एकमुड यथा भुवनं विभाति । मुक्तस्य यस्य पदे बिम्बितं स परमात्मा अनादिः ॥ ३८ ॥ गगने अनन्तेऽप्येकनक्षत्रं यथा तथा भुवनं जगत् प्रतिभाति । क प्रतिभाति । मुक्तस्य यस्य पदे केवलज्ञाने बिम्बितं प्रतिफलितं दर्पणे विम्बमिव । स एवंभूतः परमात्मा भवतीति । अत्र यस्यैव केवलज्ञाने नक्षत्रमेकमिव लोकः प्रतिभाति स एव रागादिसमस्तविकल्परहितानामुपादेयो भवतीति भावार्थः ॥ ३८ ॥ अथ योगीन्द्रवृन्दै? निरवधिज्ञानमयो निर्विकल्पसमाधिकाले ध्येयरूपश्चिन्त्यते तं परमात्मानमाह जोइय-विंदहिँ णाणमउ जो झाइज्जइ झेउ। मोक्खहँ कारणि अणवरउ सो परमप्पउ देउ ॥ ३९ ॥ योगिवृन्दैः ज्ञानमयः यो ध्यायते ध्येयः । मोक्षस्य कारणे अनवरतं स परमात्मा देवः ॥ ३९ ॥ योगीन्द्रवृन्दैः शुद्धात्मवीतरागनिर्विकल्पसमाधिरतैः ज्ञानमयः केवलज्ञानेन निर्वृत्तः यः कर्मतापन्नो ध्यायते ध्येयो ध्येयरूपोऽपि । किमर्थ ध्यायते । मोक्षकारणे मोक्षनिमित्ते अनवरतं वैरी मिथ्यात्व रागादिकोंके दूर होनेके समय ज्ञानी जीवोंको उपादेय है, और जिनके मिथ्यात्वरागादिक दूर नहीं हुए उनके उपादेय नहीं, परवस्तुका ही ग्रहण है ॥३७॥ __आगे अनंत आकाशमें एक नक्षत्रकी तरह जिसके केवलज्ञानमें तीनों लोक भासते हैं, वह परमात्मा है, ऐसा कहते हैं-[यथा] जैसे [अनंतेऽपि] अनंत [गगने] आकाशमें [एकं उडु] एक नक्षत्र ["तथा"] उसी तरह [भुवनं] तीन लोक [यस्य] जिसके [पदे] केवलज्ञानमें [बिंबितं] प्रतिबिंबित हुए [विभाति] दर्पणमें मुखकी तरह भासता है, [सः] वह [परमात्मा अनादिः] परमात्मा अनादि है ॥ भावार्थ-जिसके केवलज्ञानमें एक नक्षत्रकी तरह समस्त लोक अलोक भासते हैं, वही परमात्मा रागादि समस्त विकल्पोंसे रहित योगीश्वरोंको उपादेय है ॥३८॥ आगे अनंतज्ञानमयी परमात्मा योगीश्वरोंकर निर्विकल्पसमाधि-कालमें ध्यान करने योग्य है, उसी परमात्माको कहते हैं-[यः] जो [योगींद्रवृदैः] योगीश्वरोंकर [मोक्षस्य कारणे] मोक्षके निमित्त [अनवरतं] निरन्तर [ज्ञानमयः] ज्ञानमयी [ध्यायते] चितवन किया जाता है, [सः परमात्मा देवः] वह परमात्मदेव [ध्येयः] आराधने योग्य है, दूसरा कोई नहीं ।। भावार्थ-जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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