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________________ योगीन्दुदेवविरचितः [ दोहा ४०निरन्तरं स एव परमात्मा देवः परमाराध्य इति । अत्र य एव परमात्मा मुनिवृन्दानां ध्येयरूपो भणितः स एव शुद्धात्मसंवित्तिप्रतिपक्षभूतार्तरौद्रध्यानरहितानामुपादेय इति भावार्थः॥ ३९ ॥ ____ अथ योऽयं शुद्धबुबैकस्वभावो जीवो ज्ञानावरणादिकर्महेतुं लब्ध्वा त्रसस्थावररूपं जगज्जनयति स एव परमात्मा भवति नान्यः कोऽपि जगत्कर्ता ब्रह्मादिरिति प्रतिपादयति जो जिउ हेउ लहेवि विहि जगु बहु-विहउ जणेइ । लिंगत्तय-परिमंडियउ सो परमप्पु हवेइ ॥ ४० ॥ यो जीवः हेतुं लब्ध्वा विधिं जगत् बहुविधं जनयति । लिङ्गत्रयपरिमण्डितः स परमात्मा भवति ॥ ४०॥ यो जीवः कर्ता हेतुं लब्ध्वा । किम् । विधिसंज्ञं ज्ञानावरणादिकर्म । पश्चाज्जङ्गमस्थावररूपं जगज्जनयति स एव लिङ्गत्रयमण्डितः सन् परमात्मा भण्यते न चान्यः कोऽपि जगत्कर्ता हरिहरादिरिति। तद्यथा। योऽसौ पूर्व बहुधा शुद्धात्मा भणितः स एव शुद्धद्रव्याथिकनयेन शुद्धोऽपि सन् अनादिसंतानागतज्ञानावरणादिकर्मबन्धप्रच्छादितखाद्वीतरागनिर्विकल्पसहजानन्दैकसुखास्वादमलभमानो व्यवहारनयेन त्रसो भवति, स्थावरो भवति, स्त्रीपुंनपुंसकलिङ्गो भवति, तेन कारणेन जगत्कर्ता भण्यते नान्यः कोऽपि परकल्पितपरमात्मेति । अत्रायमेव शुद्धात्मा परमापरमात्मा मुनियोंको ध्यावने योग्य कहा है, वही शुद्धात्मज्ञानके वैरी आर्त रौद्र ध्यानकर रहित धर्म ज्ञानी पुरुषोंको उपादेय है, अर्थात् जब आर्तध्यान रौद्रध्यान ये दोनों छूट जाते हैं, तभी उसका ध्यान हो सकता है ॥३९।। आगे जो शुद्ध ज्ञानस्वभाव जीव ज्ञानावरणादि कर्मोंके कारणसे त्रस स्थावर जन्मरूप जगतको उत्पन्न करता है, वही परमात्मा है, दूसरे कोई भी ब्रह्मादिक जगत्कर्ता नहीं हैं, ऐसा कहते हैं-[यः] जो [जीवः] आत्मा [विधिं हेतुं] ज्ञानावरणादि कर्मरूप कारणोंको [लब्ध्वा] पाकर [बहुविधं जगत्] अनेक प्रकारके जगतको [जनयति] पैदा करता है, अर्थात् कर्मके निमित्तसे त्रस स्थावररूप अनेक जन्म धरता है [लिंगत्रयपरिमंडितः] स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, नपुंसकलिंग इन तीन चिह्नोंकर सहित हुआ [सः] वही [परमात्मा] शुद्धनिश्चयकर परमात्मा [भवति] है, अर्थात् अशुद्धपनेको परिणत हुआ जगतमें भटकता है, इसलिये जगतका कर्ता कहा है, और शुद्धपनेरूप परिणत हुआ विभाव (विकार) परिणामोंको हरता है, इसलिये हर्ता है । यह जीव ही ज्ञान अज्ञान दशाकर कर्ता हर्त्ता है और दूसरे कोई भी हरिहरादिक कर्ता हर्त्ता नहीं है ।। भावार्थ-पूर्व जो शुद्धात्मा कहा था, वह यद्यपि शुद्धनयकर शुद्ध है, तो भी अनादिसे संसारमें ज्ञानावरणादि कर्मबंधकर ढका हुआ वीतराग, निर्विकल्पसहजानन्द, अद्वितीयसुखके स्वादको न पानेसे व्यवहारनयकर त्रस और स्थावररूप स्त्री पुरुष नपुंसक लिंगादि सहित होता है, इसलिये जगत्कर्ता कहा जाता है, अन्य कोई भी दूसरोंकर कल्पित परमात्मा नहीं है । यह आत्मा ही परमात्माकी प्राप्तिके शत्रु तीन वेदों (स्त्रीलिंगादि) कर उत्पन्न हुए रागादि विकल्प-जालोंको निर्विकल्पसमाधिसे जिस समय नाश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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