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________________ ३७ -दोहा ३६ ] परमात्मप्रकाश: इति भावार्थः ॥ ३४ ॥ अथ यः समभावस्थितानां योगिनां परमानन्दं जनयन् कोऽपि शुद्धात्मा स्फुरति । तमाह जो सम-भाव-परिट्ठियह जोइहँ कोइ फुरेइ । परमाणंदु जणंतु फुड सो परमप्पु हवेइ ॥ ३५ ॥ यः समभावप्रतिष्ठितानां योगिनां कश्चित् स्फुरति । परमानन्दं जनयन् स्फुटं स परमात्मा भवति ॥ ३५ ॥ यः कोऽपि परमात्मा जीवितमरणलाभालाभसुखदुःखशत्रुमित्रादिसमभावपरिणतस्वशुद्धात्मसम्यक्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपाभेदरत्नत्रयात्मकवीतरागनिर्विकल्पसमाधौ प्रतिष्ठितानां परमयोगिनां कश्चित् स्फुरति संवित्तिमायाति । किं कुर्वन् । वीतरागपरमानन्दं जनयन् स्फुटं निश्चितम् । तथा चोक्तम्-"आत्मानुष्ठाननिष्ठस्य व्यवहारबहिःस्थितेः । जायते परमानन्दः कश्चियोगेन योगिनः॥" हे प्रभाकरभट्ट स एवंभूतः परमात्मा भवतीति । अत्र वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरतानां स एवोपादेयः, तद्विपरीतानां हेय इति तात्पर्यार्थः॥ ३५॥ अथ शुद्धात्मप्रतिपक्षभूतकर्मदेहप्रतिबद्धोऽप्यात्मा निश्चयनयेन सकलो न भवतीति ज्ञापयति कम्म-णिबद्ध वि जोइया देहि वसंतु वि जो जि ! होइ ण सयलु कया वि फुड मुणि परमप्पउ सो जि ॥ ३६ ॥ ममत्वसे रहित (विवेकी) पुरुषोंके आराधने योग्य है ॥३४॥ ___ आगे जो योगी समभावमें स्थित हैं, उनको परमानन्द उत्पन्न करता हुआ कोई शुद्धात्मा स्फुरायमान है, उसका स्वरूप कहते हैं-समभावप्रतिष्ठितानां] समभाव अर्थात् जीवित, मरण, लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, शत्रु, मित्र इत्यादि इन सबमें समभावको परिणत हुए [योगिनां] परम योगीश्वरोंके अर्थात् जिनके शत्रु-मित्रादि सब समान है, और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप अभेदरत्नत्रय जिसका स्वरूप है, ऐसी वीतरागनिर्विकल्पसमाधिमें तिष्ठे हुए हैं, उन योगीश्वरोंके हृदयमें [परमानन्दं जनयन्] वीतराग परम आनन्दको उत्पन्न करता हुआ [यः कश्चित्] जो कोई [स्फुरति] स्फुरायमान होता है, [स स्फुटं] वही प्रकट [परमात्मा] परमात्मा [भवति] है ऐसा जानो । ऐसा ही दूसरी जगह भी “आत्मानुष्ठान" इत्यादिसे कहा है, अर्थात् जो योगी आत्माके अनुभवमें तल्लीन हैं, और व्यवहारसे रहित शुद्ध निश्चयमें तिष्ठते हैं, उन योगियोंके ध्यान करके अपूर्व परमानन्द उत्पन्न होता है । इसलिये हे प्रभाकरभट्ट, जो आत्मस्वरूप योगीश्वरोंके हृदयमें स्फुरायमान है, वही उपादेय है । जो योगी वीतरागनिर्विकल्पसमाधिमें लगे हुए हैं, संसारसे पराङ्मुख हैं, उन्हींके वह आत्मा उपादेय है, और जो देहात्मबुद्धि विषयासक्त हैं, वे अपने स्वरूपको नहीं जानते हैं, उनके आत्मरुचि नहीं हो सकती यह तात्पर्य हुआ ॥३५॥ आगे शुद्धात्मासे जुदे कर्म और शरीर इन दोनोंकर अनादिकर बँधा हुआ यह आत्मा है, तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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