________________
योगीन्दुदेवविरचितः
[ दोहा ३४स्वयं शुद्धद्रव्याथिकनयेनानाद्यनन्तः, यद्यपि देहो जडस्तथापि स्वयं लोकालोकप्रकाशकखाकेवलज्ञानस्फुरिततनुः केवलज्ञानप्रकाशरूपशरीर इत्यर्थः । स पूर्वोक्तलक्षणयुक्तः परमात्मा भवतीति । कथंभूतः । निर्धान्तः निस्सन्देह इति अत्र योऽसौ देहे वसन्नपि सर्वाशुच्यादिदेहधर्म न स्पृशति स एव शुद्धात्मोपादेय इति भावार्थः॥ ३३॥ ____ अथ शुद्धात्मविलक्षणे देहे वसन्नपि देहं न स्पृशति देहेन सोऽपि न स्पृश्यत इति प्रतिपादयति
देहे वसंतु वि णवि छिवइ णियमें देहु वि जो जि । देहे छिप्पइ जो वि णवि मुणि परमप्पउ सो जि ॥ ३४ ॥ देहे वसन्नपि नैव स्पृशति नियमेन देहमपि य एव ।
देहेन स्पृश्यते योऽपि नैव मन्यस्व परमात्मानं तमेव ॥ ३४॥ देहे वसन्नपि नैव स्पृशति नियमेन देहमपि, देहेन न स्पृश्यते योऽपि मन्यस्व जानीहि परमात्मा सोऽपि । इतो विशेषः-य एव शुद्धात्मानुभूतिविपरीतेन क्रोधमानमायालोभस्वरूपादिविभावपरिणामेनोपार्जितेन पूर्वकर्मणा निर्मिते देहे अनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण वसन्नपि निश्चयेन य एव देहं न स्पृशति, तथाविधदेहेन न स्पृश्यते योऽपि तं मन्यस्व जानीहि परमास्मानं तमेवम् । किं कृता । वीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थिवेति । अत्र य एव शुद्धात्मानुभूतिरहितदेहे ममतपरिणामेन सहितानां हेयः स एव शुद्धात्मा देहममतपरिणामरहितानामुपादेय अनादि अनंत है, तथा यह देह आदि अंतकर सहित है, [केवलज्ञानस्फुरिततनुः] जो आत्मा निश्चयनयकर लोक अलोकको प्रकाशनेवाले केवलज्ञानस्वरूप है, अर्थात् केवलज्ञान ही प्रकाशरूप शरीर है, और देह जड है [सः परमात्मा] वही परमात्मा [निर्धान्तः] निःसंदेह है, इसमें कुछ संशय नहीं समझना । सारांश यह है, कि जो देहमें रहता है, तो भी देहसे जुदा है, सर्वाशुचिमयी देहको वह देव छूता नहीं है, वही आत्मदेव उपादेय है ॥३३॥ - आगे शुद्धात्मासे भिन्न इस देहमें रहता हुआ भी देहको नहीं स्पर्श करता हैं, और देह भी उसको नहीं छूती है, यह कहते हैं-य एव] जो [देहे वसन्नपि] देहमें रहता हुआ भी [नियमेन] निश्चयनयकर [देहमपि] शरीरको [नैव स्पृशति] नहीं स्पर्श करता, [देहेन] देहसे [यः अपि] वह भी [नैव स्पृश्यते] नहीं छुआ जाता । अर्थात् न तो जीव देहको स्पर्श करता है और न देह जीवको स्पर्श करती है, [तमेव] उसीको [परमात्मानं] परमात्मा [मन्यस्व] तू जान, अर्थात् अपना स्वरूप ही परमात्मा है || भावार्थ-जो शुद्धात्माकी अनुभूतिसे विपरीत क्रोध, मान, माया, लोभरूप विभाव परिणाम हैं, उनकर उपार्जन किये शुभ अशुभ कर्मोंकर बनाई हुई देहमें अनुपचरितअसद्भूत-व्यवहारनयकर बसता हुआ भी निश्चयकर देहको नहीं छूता, उसको तुम परमात्मा जानो, उसी स्वरूपको वीतराग निर्विकल्पसमाधिमें तिष्ठकर चितवन करो । यह आत्मा जडरूप देहमें व्यवहारनयकर रहता है, सो देहात्मबुद्धिवालेको नहीं मालूम होता है, वही शुद्धात्मा देहके
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org