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________________ दोहा ३३ ] परमात्मप्रकाशः ३५ अथ संसारशरीरभोगनिर्विण्णो भूत्वा यः शुद्धात्मानं ध्यायति तस्य संसारवल्ली नश्यतीति कथयति — भव-तणु-भयविरत-मणु जो अप्पा झाएइ | तासु गुरुकी वेल्लडी संसारिणि तुट्टेइ || ३२ ॥ भवतनुभोगविरक्तमना य आत्मानं ध्यायति । तस्य गुर्वी वल्ली सांसारिकी त्रुट्यति ॥ ३२ ॥ भवतनुभोगेषु रञ्जितं मूर्छितं वासितमासक्तं चित्तं स्वसंवित्तिसमुत्पन्नवीतरागपरमानन्दसुखरसास्वादेन व्यावृत्त्य स्वशुद्धात्मसुखे रतत्वात्संसारशरीरभोगविरक्तमनाः सन् यः शुद्धात्मानं ध्यायति तस्य गुरुक्की महती संसारवल्ली त्रुट्यति नश्यति शतचूर्णा भवतीति । अत्र येन परमात्मध्यानेन संसारवल्ली विनश्यति स एव परमात्मोपादेयो भावनीयश्चेति तात्पर्यार्थः ॥ ३२ ॥ इति चतुर्विंशतिसूत्रमध्ये प्रक्षेपकपञ्चकं गतम् । तदनन्तरं देहदेवगृहे योऽसौ वसति स एव शुद्धनिश्चयेन परमात्मा तन्निरूपयतिदेहादेवलि जो बसाइ देउ अणाइ- अणंतु । केवल-णाण- फुरंत-तणु सो परमप्पु णिभंतु ॥ ३३ ॥ देहदेवालये यः वसति देवः अनाद्यनन्तः । केवलज्ञानस्फुरत्तनुः स परमात्मा निर्भ्रान्तः ॥ ३३॥ व्यवहारेण देहदेवकुले वसन्नपि निश्चयेन देहाद्भिन्नत्वादेहवन्मूर्तः सर्वाशुचिमयो न भवति । यद्यपि देहो नाराध्यस्तथापि स्वयं परमात्माराध्यो देवः पूज्यः, यद्यपि देह आद्यन्तस्तथापि आगे जो कोई संसार, शरीर, भोगोंसे विरक्त होकर शुद्धात्माका ध्यान करता है उसीके संसाररूपी बेल नाशको प्राप्त हो जाती है, ऐसा कहते हैं - [ यः ] जो जीव [भवतनुभोगविरक्तमनाः] संसार, शरीर और भांगोंमें विरक्त मन हुआ [ आत्मानं ] शुद्धात्माका [ ध्यायति ] चिंतवन करता है, [तस्य ] उसकी [गुर्वी ] मोटी [ सांसारिकी वल्ली ] संसाररूपी बेल [त्रुट्यति ] नाशको प्राप्त हो जाती है । भावार्थ-संसार, शरीर, भोगोंमें अत्यंत आसक्त (लगा हुआ ) चित्त है, उसको आत्मज्ञानसे उत्पन्न हुए वीतरागपरमानंद सुखामृतके आस्वादसे राग-द्वेषसे हटाकर अपने शुद्धात्म-सुख अनुरागी कर शरीरादिकमें वैराग्यरूप हुआ जो शुद्धात्माको विचारता है, उसका संसार छूट जाता है, इसलिये जिस परमात्माके ध्यानसे संसाररूपी बेल दूर हो जाती है, वही ध्यान करने योग्य उपादेय हैं ||३२|| Jain Education International आगे जो देहरूपी देवालयमें रहता है, वही शुद्धनिश्चयनयसे परमात्मा है, यह कहते हैं - [ यः ] जो व्यवहारनयकर [ देहदेवालये ] देहरूपी देवालयमें [ वसति ] बसता है, निश्चयनयकर देहसे भिन्न है, देहकी तरह मूर्तिक तथा अशुचिमय नहीं है, महा पवित्र है; [ देवः ] आराधने योग्य है, पूज्य है, देह आराधने योग्य नहीं है; [ अनाद्यनंतः ] जो परमात्मा आप शुद्ध द्रव्यार्थिकनयकर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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