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________________ ३२ योगीन्दुदेवविरचितः यत्र नेन्द्रियसुखदुःखानि यत्र न मनोव्यापारः । तं आत्मानं मन्यस्व जीव त्वं अन्यत्परमपहर ॥ २८ ॥ जित्थु ण इंदियसुहदुहई जित्थु ण मणवावारु यत्र शुद्धात्मस्वरूपे न सन्ति न विद्यन्ते । कानि । अनाकुलत्वलक्षणपारमार्थिकसौख्यविपरीतान्याकुलत्वोत्पादकानीन्द्रियसुखदुःखानि यत्र च निर्विकल्पपरमात्मनो विलक्षणः संकल्पविकल्परूपो मनोव्यापारो नास्ति । सो अप्पा मुणि जीव तुहुं अण्णु परिं अवहारु तं पूर्वोक्तलक्षणं स्वशुद्धात्मानं मन्यस्व नित्या - नन्दैकरूपं वीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा जानीहि हे जीव, त्वम् अन्यत्परमात्मस्वभावाद्विपरीतं पञ्चेन्द्रियविषयस्वरूपादिविभावसमूहं परस्मिन् दूरे सर्वप्रकारेणापहर त्यज । तात्पर्यार्थः । निर्विकल्पसमाधौ सर्वत्र वीतरागविशेषणं किमर्थं कृतम् इति पूर्वपक्षः । परिहारमाह । यत एव हेतोः वीतरागस्तत एव निर्विकल्प इति हेतुहेतुमद्भावज्ञापनार्थम्, अथवा ये सरागिणोऽपि सन्तो वयं निर्विकल्पसमाधिस्था इति वदन्ति तन्निषेधार्थम्, अथवा श्वेतशङ्खवत्स्वरूपविशेषणमिदम् इति परिहारत्रयं निर्दोषिपरमात्मशब्दादिपूर्वपक्षेऽपि योजनीयम् ॥ २८ ॥ अथ यः परमात्मा व्यवहारेण देहे तिष्ठति निश्वयेन स्वस्वरूपे तमाहदेहादेहहिं जो वसइ भेयाभेय णएण | सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ किं अण्णें बहुएण ॥ २९ ॥ देहादेहयोः यो वसति भेदाभेदनयेन । तमात्मानं मन्यस्व जीव त्वं किमन्येन बहुना ॥ २९॥ Jain Education International [ दोहा २८ विकल्परूप मनका व्यापार भी [न] नहीं हैं, अर्थात् विकल्प रहित परमात्मासे मनके व्यापार जुदे हैं, [तं] उस पूर्वोक्त लक्षणवालेको [ हे जीव त्वं ] हे जीव, तू [ आत्मानं ] आत्माराम [ मन्यस्व ] मान, [ अन्यत्परं ] अन्य सब विभावोंको [ अपहर] छोड || भावार्थ - ज्ञानानन्दस्वरूप निज शुद्धात्माको निर्विकल्पसमाधिमें स्थिर होकर जान, अन्य परमात्मस्वभावसे विपरीत पाँच इन्द्रियोंके विषय वगैरह सब विकार परिणामोंको दूरसे ही त्याग, उनका सर्वथा ही त्याग कर । यहाँ पर किसी शिष्यने प्रश्न किया, कि निर्विकल्पसमाधिमें सब जगह वीतराग विशेषण क्यों कहा है ? उसका उत्तर कहते हैं-जहाँपर वीतरागता है, वही निर्विकल्प समाधिपना है, इस रहस्यको समझानेके लिये अथवा जो रागी हुए कहते हैं कि, हम निर्विकल्प समाधिमें स्थित हैं, उनके निषेधके लिये वीतरागता सहित निर्विकल्पसमाधिका कथन किया गया है, अथवा सफेद शंखकी तरह स्वरूप प्रकट करनेके लिये कहा गया है, अर्थात् जो शंख होगा, वह श्वेत ही होगा, उसी प्रकार जो निर्विकल्पसमाधि होगी, वह वीतरागतारूप ही होगी ॥ २८॥ आगे यह परमात्मा व्यवहारनयसे तो इस देहमें ठहर रहा है, लेकिन निश्चयनयकर अपने स्वरूपमें ही तिष्ठता है, ऐसे आत्माको कहते हैं - [ यः ] जो [ भेदाभेदनयेन देहादेहयोः वसति ] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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