________________
-दोहा ३०] परमात्मप्रकाशः
३३ देहादेहयोरधिकरणभूतयोर्यों वसति । केन । भेदाभेदनयेन । तथाहि अनुपचरितासद्भूतव्यवहारेणाभेदनयेन स्वपरात्मनोऽभिन्ने स्वदेहे वसति शुद्धनिश्चयनयेन तु भेदनयेन स्वदेहाद्भिन्ने स्वात्मनि वसति यः तमात्मानं मन्यस्व जानीहि हे जीव नित्यानन्दैकवीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा भावयेत्यर्थः । किमन्येन शुद्धात्मनो भिन्नेन देहरागादिना बहुना । अत्र योऽसौ देहे वसन्नपि निश्चयेन देहरूपो न भवति स एव स्वशुद्धात्मोपादेय इति तात्पर्यार्थः ॥ २९॥ अथ जीवाजीवयोरेकवं मा कार्कीलक्षणभेदेन भेदोऽस्तीति निरूपयति
जीवाजीव म एकु करि लक्खण भेएँ भेउ। जो परु सो परु भणमि मुणि अप्पा अप्पु अभेउ ॥ ३० ॥ जीवाजीवौ मा एकौ कुरु लक्षणभेदेन भेदः ।
यत्परं तत्परं भणामि मन्यस्व आत्मन आत्मना अभेदः ॥ ३०॥ हे प्रभाकरभट्ट जीवाजीवावेकौ मा कार्षीः । कस्मात् । लक्षणभेदेन भेदोऽस्ति तद्यथारसादिरहितं शुद्धचैतन्य जीवलक्षणम् । तथा चोक्तं प्राभृते-"अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसदं जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिहिट्ठसंठाणं॥"। इत्थंभूतशुद्धात्मनो भिन्नमजीवलक्षणम् । तच्च द्विविधम् । जीवसंबन्धमजीवसंबन्धं च । देहरागादिरूपं जीवसंबन्धं, पुद्गलादिपञ्चद्रव्यरूपमअनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनयकर अपनेसे भिन्न जडरूप देहमें तिष्ठ रहा है, और शुद्ध निश्चयनयकर अपने आत्मस्वभावमें ठहरा हुआ है, अर्थात व्यवहारनयकर तो देहसे अभेदरूप (तन्मय) है, और निश्चयसे सदा कालसे अत्यंत जुदा है अपने स्वभावमें स्थित है, [तं] उसे [हे जीव त्वं] हे जीव, तू [आत्मानं] परमात्माको [मन्यस्व] जान । अर्थात् नित्यानंद वीतराग निर्विकल्पसमाधिमें ठहरकर अपने आत्माका ध्यान कर । [अन्येन] अपनेसे भिन्न [बहुना] देह रागादिकोंसे [किं] तुझे क्या प्रयोजन है ? भावार्थ-देहमें रहता हुआ भी निश्चयसे देहस्वरूप जो नहीं होता, वही निज शुद्धात्मा उपादेय है ॥२९॥
आगे जीव और अजीवमें लक्षणके भेदसे भेद है, तू दोनोंको एक मत जान, ऐसा कहते हैं-हे प्रभाकरभट्ट, तू [जीवाजीवौ] जीव और अजीवको [एकौ] एक [मा कार्षीः] मत कर, क्योंकि इन दोनोंमें [लक्षणभेदेन] लक्षणके भेदसे [भेदः] भेद है। [यत्परं] जो परके संबंधसे उत्पन्न हुए रागादि विभाव (विकार) हैं, [तत्परं] उनको पर (अन्य) [मन्यस्व] समझ [च] और [आत्मनः] आत्माको [आत्मना अभेदः] अपनेसे अभेद जान [भणामि] ऐसा मैं कहता हूँ ॥ भावार्थ-जीव अजीवके लक्षणोंमेंसे जीवका लक्षण शुद्ध चैतन्य है, वह स्पर्श, रस, गंधरूप, शब्दादिकसे रहित है । ऐसा ही श्रीसमयसारमें कहा है-'अरसं' इत्यादि । इसका सारांश यह है, कि जो आत्मद्रव्य है, वह मिष्ट वगैरह पाँच प्रकारके रस रहित है, श्वेत आदिक पाँच तरहके वर्ण रहित है, सुगन्ध दुर्गंध इन दो तरहके गंध उसमें नहीं हैं, प्रगट (दृष्टिगोचर) नहीं है, चैतन्यगुण सहित है, शब्दसे रहित है, पुलिंग वगैरह करके ग्रहण नहीं होता, अर्थात् लिंग रहित है, और उसका आकार नहीं दीखता, अर्थात् निराकार वस्तु है । आकार छह प्रकारके हैं-समचतुरस्र, न्यग्रोध-परिमंडल, सातिक,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org