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________________ - दोहा २८ ] परमात्मप्रकाशः पि तं मुह || " अत्र स एव परमात्मोपादेय इति भावार्थ: ।। २६ ।। अथ येन शुद्धात्मना स्वसंवेदनज्ञानचक्षुषावलोकितेन पूर्वकृतकर्माणि नश्यन्ति तं किं न जानासि त्वं हे योगिन्निति कथयन्ति जें दिट्ठे तुहंति लहु कम्मइँ पुव्व कियाइँ | सो परु जाणहि जोइया देहि वस्तु ण काइँ ॥ २७ ॥ येन दृष्टेन त्रुट्यन्ति लघु कर्माणि पूर्वकृतानि । तं परं जानासि योगिन् देहे वसन्तं न किम् ॥ २७॥ जें दिट्ठे तुहंति लहु कम्मई पुव्वकियाई येन परमात्मना दृष्टेन सदानन्दैकरूपवीतरागनिर्विकल्पसमाधिलक्षणनिर्मललोचनेनावलोकितेन त्रुट्यन्ति शतचूर्णानि भवन्ति लघु शीघ्रम् अन्तर्मुहूर्तेन । कानि । परमात्मनः प्रतिबन्धकानि स्वसंवेद्यभावोपार्जितानि पूर्वकृतकर्माणि परु जाणहि जोइया देहि वसंतु ण काई तं नित्यानन्दैकस्वभावं स्वात्मानं परमोत्कृष्टं किं न जानासि हे योगिन् । कथंभूतमपि । स्वदेहे वसन्तमपीति । अत्र स एवोपादेय इति भावार्थः ॥ २७ ॥ अथ ऊर्ध्व प्रक्षेपपञ्चकं कथयन्ति । तद्यथा— जित्थु ण इंदिय-सुह-दुहइँ जित्थु ण मण-वावारु । सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ अण्णु परिं अवहारु ॥ २८ ॥ Jain Education International ३१ देहमें बसता है, उसको तू परमात्मा जान ।। भावार्थ - वही परमात्मा उपादेय है ||२६|| आगे जिस शुद्धात्माको सम्यग्ज्ञान - नेत्रसे देखनेसे पहले उपार्जन किये हुए कर्म नाश हो जाते है, उसे हे योगिन्, तू क्यों नहीं पहचानता ? ऐसा कहते हैं - [ येन ] जिस परमात्माको [दृष्टेन ] सदा आनंदरूप वीतराग निर्विकल्प समाधिस्वरूप निर्मल नेत्रोंकर देखनेसे [ लघु ] शीघ्र ही [ पूर्वकृतानि ] निर्वाणके रोकनेवाले पूर्व उपार्जित [कर्माणि] कर्म [ त्रुट्यंति ] चूर्ण हो जाते हैं, अर्थात् सम्यग्ज्ञानके अभाव से ( अज्ञानसे) जो पहले शुभ अशुभ कर्म कमाये थे, वे निजस्वरूपके देखनेसे ही नाश हो जाते हैं, [ तं परं ] उस सदानंदरूप परमात्माको [ देहे वसंतं ] देहमें बसते हुए भी [हे योगिन्] हे योगी [ किं न जानासि ] तू क्यों नहीं जानता ? ॥ भावार्थ-जिसके जाननेसे कर्म-कलंक दूर हो जाते हैं वह आत्मा शरीरमें निवास करता हुआ भी देहरूप नहीं होता, उसको तू अच्छी तरह पहचान और दूसरे अनेक प्रपंचों (झगडों) को तो जानता है, अपने स्वरूपकी तरफ क्यों नहीं देखता ? वह निज स्वरूप ही उपादेय है, अन्य कोई नहीं है ||२७|| इससे आगे पाँच प्रक्षेपकों द्वारा आत्माका ही कथन करते हैं - [ यत्र ] जिस शुद्ध आत्मस्वभावमें [ इन्द्रियसुखदुःखानि ] आकुलता रहित अतीन्द्रियसुखसे विपरीत जो आकुलताके उत्पन्न करनेवाले इन्द्रियजनित सुख दुःख [न] नहीं हैं, [ यत्र ] जिसमें [ मनोव्यापारः ] संकल्प For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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