SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगीन्दुदेवविरचितः [ दोहा २६स एव परमपदे मोक्षे निवसति । यत्पदं कथंभूतम् । त्रैलोक्यस्यावसानमिति । अत्र तदेव मुक्तजीवसदृशं स्वशुद्धात्मस्वरूपमुपादेयमिति भावार्थः॥२५।। एवं त्रिविधात्मकथनप्रथममहाधिकारमध्ये मुक्तिगतसिद्धजीवव्याख्यानमुख्यत्वेन दोहकसूत्रदशकं गतम् । ___ अत ऊर्ध्व प्रक्षेपपञ्चकमन्त वचतुर्विंशतिसूत्रपर्यन्तं यादृशो व्यक्तिरूपः परमात्मा मुक्तौ तिष्ठति तादृशः शुद्धनिश्चयनयेन शक्तिरूपेण तिष्ठतीति कथयन्ति । तद्यथा जहउ णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहि णिवसइ देउ । तेहउ णिवसइ बंभु परु देहहँ में करि भेउ ॥ २६ ॥ यादृशो निर्मलो ज्ञानमयः सिद्धौ निवसति देवः । तादृशो निवसति ब्रह्मा परः देहे मा कुरु भेदम् ॥ २६ ॥ यादृशः केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपः कार्यसमयसारः, निर्मलो भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्ममलरहितः, ज्ञानमयः केवलज्ञानेन निवृत्तः केवलज्ञानान्तर्भूतानन्तगुणपरिणतः सिद्धो मुक्तो मुक्तौ निवसति तिष्ठति देवः परमाराध्यः । तादृशः पूर्वोक्तलक्षणसदृशः निवसति तिष्ठति ब्रह्मा शुद्धबुद्धकस्वभावः परमात्मा पर उत्कृष्टः । क निवसति । देहे । केन । शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन । कथंभूतेन । शक्तिरूपेण हे प्रभाकरभट्ट भेदं मा कार्षीस्वमिति । तथा चोक्तं श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवैः मोक्षप्राभृते-"णमिएहिं जं णमिज्जइ झाइज्जइ झाइएहिं अणवरयं । थुन्तेहिं थुणिज्जइ देहत्थं किं लोकका [ध्येयः] ध्येय (ध्यान करने योग्य) है ॥ भावार्थ-यहाँ पर जो सिद्धपरमेष्ठीका व्याख्यान किया है, उसीके समान अपना भी स्वरूप है, वही उपादेय (ध्यान करने योग्य) है, जो सिद्धालय है, वह देहालय है, अर्थात् जैसा सिद्धलोकमें विराज रहा है, वैसा ही हंस (आत्मा) इस घट (देह) में विराजमान है ॥२५॥ इस प्रकार जिसमें तीन तरहके आत्माका कथन है, ऐसे प्रथम महाधिकारमें मुक्तिको प्राप्त हुए सिद्धपरमात्माके व्याख्यानकी मुख्यताकर चौथे स्थलमें दश दोहा-सूत्र कहे । आगे पाँच क्षेपक मिले हुए चौबीस दोहोंमें जैसा प्रगटरूप परमात्मा मुक्तिमें है, वैसा ही शुद्धनिश्चयनयकर देहमें भी शक्तिरूप है, ऐसा कहते हैं-[यादृशः] जैसा केवलज्ञानादि प्रगटस्वरूप कार्यसमयसार [निर्मलः] उपाधि रहित भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्मरूप मलसे रहित [ज्ञानमय] केवलज्ञानादि अनंत गुणरूप सिद्धपरमेष्ठी [देवः] देवाधिदेव परम आराध्य [सिद्धो] मुक्तिमें [निवसति] रहता है, [तादृशः] वैसा ही सब लक्षणों सहित [परः ब्रह्मा] परब्रह्म, शुद्ध बुद्ध स्वभाव परमात्मा, उत्कृष्ट शुद्ध द्रव्यार्थिक नयकर शक्तिरूप परमात्मा [देहे] शरीरमें [निवसति] तिष्ठता है, इसलिये हे प्रभाकरभट्ट, तू [भेदं] सिद्ध भगवानमें और अपनेमें भेद [मा कुरु] मत कर । ऐसा ही मोक्षपाहुडमें श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने भी कहा है “णमिएहिं" | इत्यादि इसका यह अभिप्राय है, कि जो नमस्कार योग्य महापुरुषोंसे भी नमस्कार करने योग्य है, स्तुति करने योग्य सत्पुरुषोंसे स्तुति किया गया है, और ध्यान करने योग्य आचार्यपरमेष्ठी वगैरहसे भी ध्यान करने योग्य ऐसा जीवनामा पदार्थ इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy