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________________ -दोहा १६] परमात्मप्रकाशः देयो ज्ञानावरणादिसमस्तविभावरूपं परद्रव्यं तु हेयमिति भावार्थः ॥ १५ ॥ एवंविधात्मपतिपादकप्रथममहाधिकारमध्ये संक्षेपेण त्रिविधात्मसूचनमुख्यतया सूत्रपञ्चकं गतम् । तदनन्तरं मुक्ति गतकेवलज्ञानादिव्यक्तिरूपसिद्धजीवव्याख्यानमुख्यत्वेन दोहकसूत्रदशकं प्रारभ्यते । तद्यथा। लक्ष्यमलक्ष्येण धृत्वा हरिहरादिविशिष्टपुरुषा यं ध्यायन्ति तं परमात्मानं जानीहीति प्रतिपादयति तिहुयण-वंदिउ सिद्धि-गउ हरि-हर झायहिं जो जि । लक्खु अलक्खें धरिवि थिरु मुणि परमप्पउ सो जि ॥ १६ ॥ त्रिभुवनवन्दितं सिद्धिगतं हरिहरा ध्यायन्ति यमेव । लक्ष्यमलक्ष्येण धृत्वा स्थिरं मन्यस्व परमात्मानं तमेव ॥ १६ ॥ तिहुयणवंदिउ सिद्धिगउ हरिहर झायहिं जो जि त्रिभुवनवन्दितं सिद्धिगतं यं केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपं परमात्मानं हरिहरहिरण्यगर्भादयो ध्यायन्ति। किं कृत्वा पूर्वम् । लक्खु अलक्खें धरिवि थिरु लक्ष्यं संकल्परूपं चित्तम् । अलक्ष्येण वीतरागनिर्विकल्पनित्यानन्दैकस्वभावपरमात्मरूपेण धृत्वा । कथंभूतम् । स्थिरं परीषहोपसगैरक्षुभितं मुणि परमप्पउ सो जि तमित्थंभूतं परमात्मानं हे प्रभाकरभट्ट मन्यस्व जानीहि भावयेत्यर्थः। अत्र केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपमुक्तिगतपरमात्मसदृशो रागादिरहितः स्वशुद्धात्मा साक्षादुपादेय इति भावार्थः॥१६॥ संकल्पविकल्पस्वरूपं कथ्यते । तद्यथा-बहिर्द्रव्यविषये पुत्रकलत्रादिचेतनाचेतनरूपे ममेदमिति चाहिये ॥१५॥ इस प्रकार जिसमें तीन तरहके आत्माका कथन है, ऐसे प्रथम महाधिकारमें त्रिविध आत्माके कथनकी मुख्यतासे तीसरे स्थलमें पाँच दोहा-सूत्र कहे । ___ अब मुक्तिको प्राप्त हुए केवलज्ञानादिरूप सिद्ध परमात्माके व्याख्यानकी मुख्यताकर दश दोहासूत्र कहते हैं । इसमें पाँच दोहोंमें जो हरिहरादिक बडे पुरुष अपना मन स्थिरकर जिस परमात्माका ध्यान करते हैं, उसीका तू भी ध्यान कर, यह कहते हैं-हरिहराः] इन्द्र, नारायण और रुद्र वगैरः बडे बडे पुरुष [त्रिभुवनवंदितं] तीन लोककर वंदनीक (त्रैलोक्यनाथ) [सिद्धिगतं] और केवलज्ञानादि व्यक्तिरूप सिद्धपनेको प्राप्त [यं एव] जिस परमात्माको ही [ध्यायंति] ध्यावते हैं, [लक्ष्यं] अपने मनको [अलक्ष्यते] वीतराग निर्विकल्प नित्यानन्द स्वभाव परमात्मामें [स्थिरं धृत्वा] स्थिर करके [तमेव] उसीको हे प्रभाकरभट्ट, तू [परमात्मानं] परमात्मा [मन्यस्व] जान कर चितवन कर । सारांश यह है, कि केवलज्ञानादिरूप उस परमात्माके समान रागादि रहित अपने शुद्धात्माको पहचान, वही साक्षात् उपादेय है, अन्य सब संकल्प विकल्प त्यागने योग्य हैं । अब संकल्प विकल्पका स्वरूप कहते हैं, कि जो बाह्यवस्तु पुत्र, स्त्री, कुटुम्ब, बांधव, वगैरह सचेतन पदार्थ, तथा चाँदी, सोना, रत्न, मणिके आभूषण वगैरह अचेतन पदार्थ है, इन सबको अपने समझे कि ये मेरे हैं, ऐसे ममत्व परिणामको संकल्प जानना । तथा मैं सुखी, मैं दु:खी, इत्यादि हर्ष विषादरूप परिणाम होना वह विकल्प है । इस प्रकार संकल्प विकल्पका स्वरूप जानना चाहिये ।१६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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